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गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था

नम्र निवेदन।

‘गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था” सभी व्यवस्थाओं की मूल रूप व्यवस्था है, जैसे वृक्षों की जडों में सींचा हुआ पानी वृक्ष के ऊँचें से ऊँचे भाग तक जाकर उसका पोषण करता है, आदि सभी व्यवस्थाओं की जड, नींव और मूल में शिक्षा व्यवस्था है। गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने से अन्य सभी व्यवस्थाएँ भी स्वतः दृढ़ बनेगी, ऐसा पूज्य गुरुजी का पूर्ण विश्वास था। इसी कारण उन्होंने अपना पूर्ण जीवन शिक्षा व्यवस्था के भारतीयकरण के लिए समर्पित कर दिया।

‘गुरुकुल’ यह मात्र कोई स्कूल या शिक्षण संस्थान नहीं है। ‘गुरुकुल’ तो रत्न तुल्य वह संपदा है, जिसकी मिसाल पूरे विश्व में कहीं भी नहीं है। अनेक नररत्न एवं नारीरत्न इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से ही निकले और उनके पुरुषार्थ से ही भारत देश विश्व का सर्वाधिक सुसंस्कृत राष्ट्र बन पाया।

“’गुरुकुल शिक्षा” रूपी यह रत्न, जब से हमारे हाथ से गया है, तब से ही भारत के सर्वनाश का आरंभ हुआ है। परतंत्रता के परिवेश में, आत्मविश्वास के अभाव में हम परस्पर दोषारोपण करके, आज भी अपनी यह संकुचित मानसिकता के गुलाम बने हुए है।

किसी भी राष्ट्र को यदि युगों तक परतंत्र बनाकर रखना हो तो उसकी शैक्षणिक व्यवस्था में पराधीनता रख दो।

इस राजनीति से अच्छी तरह परिचित अंग्रेजों ने 1835 में, भारत में अंग्रेज शिक्षा नीति, शिक्षा रीति और शिक्षा पद्धति की नींव रखी। आज लगभग दो सौ साल के आसपास भी हम वही पद्धति के शिकंजे में जकडे हुए है। आजादी के 73 वर्ष के बाद भी हम आज वही सीख-पढ रहे हैं, जो ‘मेकोले निर्मित’ शिक्षा पद्धति हमें पढ़ा रही है। इसलिए दुःख के साथ कहना पडता है कि हम स्वतंत्र नहीं है क्योंकि शिक्षा व्यवस्था की पराधीनता का सभी व्यवस्थाओं का परावलंबन ही है। यह अर्थ सत्य स्मरण में रहे।

प्रस्तुत पुस्तक में सांप्रत शिक्षण धारा में पढे-लिखे और इस शिक्षा व्यवस्था के दुष्परिणामों के विषय में थोडा बहुत जाननेवाले और इसका विकल्प क्या हो सकता है? यह चिंतन करनेवाले जिज्ञासु, अभ्यासुजनों के लिए मार्गदर्शन है।

“’गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था” भारत का प्राण है। विकास की चाहे कितनी ही बडी बडी बातें हो, परंतु जब तक ”गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था” पुनः जीवित नहीं होगी तब तक भारतका नवनिर्माण केवल फाईलों की योजनाओं में ही रहेगा।

न केवल भारत, आज समूचा विश्व आरोग्य और शांति प्राप्त करने के लिए लड रहा है| रोगों और विकारों से त्रस्त मानव जाति जब तक प्राकृतिक और सांस्कृतिक जीवन जीना नहीं सीखेगी तब तक सुख तो क्या सुख का सपना आना भी संभव नहीं है, क्योंकि सपने देखने के लिए भी चैन की नींद चाहिए। जो विकृत एवं कृत्रिम जीवन शैली में दुर्लभ सी हो गयी है।

“’संस्कृति आर्य गुरुकुलम्‌’” भारतीय संस्कृति की इस अदभुत और अमूल्य धरोहर को सुरक्षित रखकर उसका संवर्धन करके पुनः जनमानस में ‘ “गुरुकुल शिक्षा’ को विचार के रूप में, सिद्धांत के रूप में, श्रद्धा-निष्ठा के रूप में और कर्तव्य परायणता के रूप में स्थित करने के लिए प्रयासरत शिक्षा का जंगम तीर्थस्थल है।

जहाँ जहाँ सुवर्णप्राशन केन्द्र है, जहाँ जहाँ गर्भविज्ञान और वैदिक बालशाला की बात है।, जहाँ जहाँ भारतीय विचार धारा के प्रति आकृष्ट लोग है, वहाँ वहाँ “संस्कृति आर्य गुरुकुलम्‌’” का कोई न कोई प्रतिनिधि तो होगा ही। उदार विचार धारा और उदात्त आचारसरणी के कारण “’गुरुकुल”” में सभी प्रकार के लोग विचार मंथन, चिंतन और मनन के लिए आते है और प्रेरणा का पाथेय प्राप्त करके प्रसन्‍नता पाकर पुनः आने के लिए जाते है।

““संस्कृति आर्य गुरुकुलम्‌”” स्थावर रूप से तो राजकोट गुजरात में स्थित है, परंतु ‘गुरुकुलम्‌” का जंगम रूप तो अनेक कार्यक्रमों के रूप में सर्वत्र व्यापक होता जा रहा है। आज पूरे भारत भर में 700 से अधिक सुवर्णप्राशन केन्द्र तथा उसके 1500 से भी अधिक संचालक, 40,000 से भी अधिक संख्या में शिबिरों में ज्ञान प्राप्त शिबिरार्थी, भारत से बाहर अन्य राष्ट्रों में भी प्रसार-प्रचार कार्य करनेवाले कार्यकर्ता और इन सबको परस्पर से सदैव संलग्न रखती विश्वकल्याण और विश्वारोग्य की पवित्र भावना ही ‘गुरुकुल’ का पुण्य प्रसाद है। ऋषियों का आशीर्वाद है।

गुरुकुल शिक्षा पद्धति

“’गुरुकुलम्‌’” शब्द सुनते ही हमारे मनःचक्षु के सामने एक चित्र खडा होता है। नदी के तट पर अनेक वृक्षों से सभर, वन्य एवं पालतू पशु-पक्षियों से सुशोभित एक सुंदर सा आश्रम है। आश्रम में विद्या प्राप्त करने के लिए विद्यार्थी और जिज्ञासुजन आते है। ज्ञान से समाधान पाकर तृप्त होकर पुनः अपने घर वापस लौटते है। यह दृश्य को देखकर इस विषय के संबंध में सोचकर आज भी हमारा हृदय आनंद से आर्द्र हो जाता है।

हमारे पूर्वज, हमारे ऋषि, महर्षि, आचार्य, गुरुजन एवं संतजन जो कंई युगों से हमारे प्रेरणा स्रोत हैं, उनके द्वारा अनेक व्यक्तियों को जीवन के कोई भी प्रश्न का उचित मार्गदर्शन ऐसे ‘गुरुकुल’ या ‘आश्रम’ से ही मिलता था।

पूर्व काल में “’गुरुकुलम्‌ शिक्षा पद्धति” संपूर्णतः आचार्य केन्द्रित और पंचकोश विकास के आधार पर खडी थी। गुरुकुल के हर क्रियाकलाप, नियम एवं अनुशासन, इसी पंचकोश विकास को ध्यान में रखते हुए बनाये जाते थे। इसी शिक्षा से शिक्षित एवं दीक्षित होकर अनेक चरित्रोंने इतिहास में अमरत्व प्राप्त किया है। ऐसे महापुरुषों में भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महावीर, आचार्य जीवक, आचार्य चाणक्य इसके नेत्रदीपक दृष्ट॑त है।

इस शिक्षापद्धति का नाम “’गुरुकुलम्‌ शिक्षा पद्धति’” ही उसके सभी गुणों का दर्शन कराता है।

“’गुरुकुलम्‌ शिक्षा पद्धति” में कुल मिलाकर 4 शब्द है। ‘गुरु’, ‘कुलम्‌’ , ‘शिक्षा’, ‘पद्धति’। इसमें प्रथम शब्द हैं ‘गुरु’। “गुरु शब्द से ज्ञात होता है कि यह शिक्षा पद्धति गुरु या आचार्य केन्द्रित है। इस शिक्षा पद्धति का केन्द्रबिन्दु या प्राण शक्ति गुरु या आचार्य है। जिसमें ट्रस्टी, व्यवस्था, शासन, सरकार इत्यादि अन्य कोई नहीं है। निर्णायक भूमिका में संपूर्ण स्वतंत्र और संपूर्ण अधिकारी वही व्यक्ति हो सकता है, जो भलीभाति इस व्यवस्था को समझता हो, जानता हो और उसी व्यक्ति को ‘गुरु’ या ‘आचार्य” कहा जाता है।

दूसरा शब्द है “कुलम’। ‘कुल’ शब्द आवासीय व्यवस्था को सूचित करता है अर्थात आदर्श शिक्षण पद्धति आवासीय शिक्षण पद्धति है। वही जगत की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था है क्योंकि वह जीवन से जुड़ी है। शिक्षा एक ओर, एवं जीवन दूसरी ओर। ऐसा नहीं था। शिक्षा जीवन का ही एक अभिन्न अंग है। इसलिए ही गुर को ‘जंगम विद्यापीठ’ या ‘चलती फिरती पाठशाला’ कहा गया हैं।

‘गुरु’ के आचरण द्वारा विद्यार्थी हर एक आयामों की और जीवन व्यवहार की शिक्षा पाते थे। इसलिए पढाई का कार्य 4-5 घण्टे नहीं अपितु संपूर्ण दिन-रात, सातों दिन 24 घण्टे चलता था। प्रातः उठ के दंतधावन (दातून) कैसे करना, स्नान कैसे करना, भोजन कब, कैसे करना है? रात में कैसे सोना है? यह सब बताना, यह भी एक प्रकार का शिक्षण ही है। इसलिए ‘श्रीमद्‌ भागवतम्‌’ में भी ‘कौमारात्‌ आचरेत प्राज्ञ:’ (कौमार) बाल्य अवस्था से ही बुद्धिमान आचार्य के आचरण से आचरण शिक्षा लेते है। गुरु के आचरण से बुद्धिमान शिष्य जीवन की शिक्षा लेते थे। इसलिए पढ़ना केवल सिद्धांत नहीं है, अपितु पूर्ण व्यवहारिक और प्रायोगिक है, जीवनलक्षी है। इस कारण से ही ‘गुरुकुलम्‌ शिक्षण पद्धति’ से पढे हुए विद्यार्थी अपने चरित्र और आचरण से संपूर्ण विश्व को शिक्षण या मार्गदर्शन देने का सामर्थ्य रखते थे।

एतद्देशप्रसूतस्य, सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन्‌, पृथ्विव्यां सर्वमानवा:।।

इसलिए यहाँ केवल सूखा तत्त्वज्ञान नहीं लेकिन प्रायोगिक तत्त्वज्ञान भी है। ‘गुरु’ एवं ‘कुलम्‌’ यह दोनों शब्दों के बाद तीसरा शब्द है ‘शिक्षा’। जिससे अध्ययन प्रक्रिया सरल बनती है। जो अध्ययन का माध्यम बनते है, उसको ‘शिक्षा’ अर्थात ‘पढाने के विषय पाठ्य सामग्री” कहते है। ऐसे विषयों की संख्या बहुत है। जीवन उपयोगी और जीविका उपयोगी ऐसे दो प्रकार के विषय है।

जीवन उपयोगी विषयों को “विद्या’ एवं जीविका उपयोगी विषयों को “कला” कहा जाता है। जीवन उपयोगी विद्या के 14 और जीविका उपयोगी कला के 64 प्रकार है।

जीवन उपयोगी विद्या के 14 प्रकार है:

1) ऋग्वेद, 2) यजुर्वेद, 3) सामवेद, 4) अथर्ववेद यह 4 वेद है, 5) छंद, 6) कल्प, 7) निरुक्‍त, 8) ज्योतिष, 9 ) शिक्षा, 10) व्याकरण, यह 6 वेदांग है और 11) न्यायशास्त्र, 12) मीमांसाशास्त्र, 13) धर्मशास्त्र, 14) इतिहास पुराण इस प्रकार 14 विद्या है।

इन 64 कलाओं के नाम भी उपलब्ध है। उसमें से कुछ कलाएँ लुप्त हों गई कुछ कलाएँ प्रायः लुप्त होने को है। कुछ कलाएँ आज भी प्राप्त है।

तदुपरांत “आदान्‌ (देना) एवं ‘प्रतिदान’ (लेना) यह भी विवेकपूर्ण होना चाहिए।

ऐसे अनेक प्रकार के विषयों का अध्ययन गुरुकुल में करवाया जाता है। इसलिए अनेक विषयों के प्रतिभावान एवं विद्वान, चारित्यवान आचार्यों का निर्माण गुरुकुल पद्धति से हुआ था। आज की तथाकथित मेँकोले शिक्षण पद्धति में प्रायः: 17-18 साल के अध्ययन के बाद भी विद्यार्थी को एकया दो ही तजज्ञता या दक्षता प्राप्त होती है। किन्तु गुरुकुल पद्धति में 11 -12 साल में 18 विषयों का ज्ञान प्राप्त होता था। ऐसा हमारे इतिहास में अनेक उदाहरणों द्वारा गया है।

भारतवर्ष तब गौरीशिखर पर था, जब भारत वर्ष की शिक्षा व्यवस्था का शुद्ध, सम्पूर्ण, स्वदेशी स्वरूप था। वह शिक्षा के क्षेत्र में पूर्ण विश्व को उदबोधित करनेवाली क्रान्ति थी।

राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्तजी ने ‘भारत-भारती” नाम का महाकाव्य लिखा है। उस काव्य में उन्होंने भारत के ऐतिहासिक तथ्यों का काव्यात्मक एवं रोचक शैली में निरूपण किया है। जब विश्व के अन्य देश में शिक्षा क्या है? क्‍यों है? इसका प्रयोजन क्या है? उसके संबंध में घोर अंधकार था, उस समय भारत में गुरुकल शिक्षा पद्धति से चलनेवाले सभी प्रकार की उच्च शिक्षा के विद्यापीठ, महाविद्यालय चल रहे थे। श्री मैथिलीशरण गुप्तजी लिखते है : ‘शैशव दशा में देश प्रायः जिस समय सब व्याप्त थे। नि:शेष विषयों में तभी हम प्रौढता को प्राप्त थे।’ भारतवर्ष की तत्कालीन विश्वविख्यात विद्यापीठ तक्षशिला में विविध राष्ट्रों से अनेक जिज्ञासु विद्यार्थी पढने आते थे। यहाँ अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त करते थे।

पृथागोरस (पायथागोरस) उस समय ही यवन देश से भारत में पढने के लिए आया था। रैखागणित (भूमिति-geometry) की उच्च शिक्षा प्राप्त करके अनेक नवीन सिद्धांतो की रचना की थी।

इसी काल में आयुर्वेदाचार्य राजवैद्य जीवक भी तक्षशिला में ही अभ्यास करते थे राजवैद्य जीवकजी ईरान के राजा की चिकित्सा करने गये थे। उस चिकित्सा का परिणाम प्राप्त होने पर भारत के लिए अभय का वचन लेकर वे जब तब भारत माता अपने सपूत की यह गौरवयात्रा से अवश्य प्रसन् ह्ई।

६४ कलाओं का निरुपण

जीविका उपयोगी कला के 64 प्रकार है।

  1. इतिहास कथन
  2. आगम कला (ज्योतिष)
  3. काव्य
  4. गंधधूप निर्माण
  5. अलंकार
  6. खनन कर्म
  7. नाटक-नृत्य
  8. पहेलिका
  9. गायन-वादन
  10. वृक्ष आर्युवेद
  11. कवित्व
  12. बाल क्रिडनकानि
  13. कामशास्त्र
  14. व्यायाम विद्या
  15. द्यूत कर्म
  16. अर्थशास्त्र
  17. देशभाषा- लिपिज्ञान
  18. अणिमा
  19. महिमा
  20. वाचन
  21. गरिमा
  22. गणन
  23. लघिमा
  24. लिपिकर्म
  25. सांकेतिक अक्षर
  26. व्यवहार
  27. यथार्थ कल्पना
  28. स्वरशास्‍्त्र
  29. शतरंज
  30. शव न वास]
  31. धारण मातृका
  32. सामुद्रिकशास्त्र
  33. वैजैयिकी विद्या
  34. रत्नशास्त्र
  35. वाक्सिद्धि
  36. हाथी-अश्च-रथ
  37. यंत्रमातृका कौ
  38. गुटिकासिद्धि
  39. परदृष्टिवांचन
  40. स्वरवांचन
  41. मणि मंत्र औषध
  42. आदि सिद्धि
  43. चौर कर्म
  44. चित्रक्रिया
  45. लौहक्रिया
  46. अश्मक्रिया
  47. मृतक्रिया
  48. दारुक्रिया
  49. वेणुक्रिया
  50. चर्मक्रिया
  51. अंबरक्रिया
  52. अदृश्यक्रिया
  53. दन्तिकरण
  54. मृगयाविधि
  55. वाणिज्य
  56. पशुपालन
  57. कृषि कर्म
  58. आसव कर्म
  59. भावक्कुट मेर्षा
  60. युद्ध कारक कौ१

उपनिषद कथित शिक्षा के प्रदान की पद्धतियों का निरुपण

भ्रारतवर्ष विज्ञान, तकनीकी एवं सभी कलाओं में अग्रसर और सर्वोच्च स्थान पर था। इसका कारण ‘भारतीय गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था’ थी। सुप्रसिद्ध लेखक एच जी वेल्स भी अपनी पुस्तक द आउटलाइन ऑफ़ हिस्ट्री में लिखते है कि – किसी भी मनुष्य जाति के समूह एवं महामंडल उत्पन्न होने में एवं उसे विकसित करने में धर्म एवं शिक्षा का प्रमुख योगदान रहता है। इसलिए समाजशास्त्र मनोविज्ञान का समुचित अभ्यास करने पर यह बात निश्चित है कि शिक्षा एक बडा विचारणीय एवं चिंतनीय विषय है। उसके अनेक दूरगामी परिणाम मिल सकते है। शिक्षा व्यवस्था का प्रतिबिंब समाज में दिखाई देता है। शिक्षा व्यवस्था कैसी है? यह समाज को देखकर जान सकते है।

पिछले कुछ वर्षों से भारतीय समाज में वह गलत मेंकोले शिक्षण व्यवस्था चली आ रही है। जिसको सिस्टमलेस्स सिस्टम कह सकते है, जिसकी कोई परंपरा या इतिहास नहीं है। मात्र अक्षर ज्ञान के कुछ विषयों की पढाई करवाई जा रही है। भारतीय चित्त मानस एवं धर्म का, उसमें कोई विचार नहीं है। इसलिए वह भारतीय समाज के लिए संपूर्ण प्रतिकूल है।

उपरांत समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और मानसशास्त्र की दृष्टि से इस सिस्टम में बहुत दोष है। जो गुरुकुलम्‌ शिक्षा पद्धति में नहीं है। इसलिए ही उसके बहुत अच्छे परिणाम समाज को मिले थे। ‘गुरुकुल शिक्षा पद्धति” जैसे विकसित हुई वैसे वैसे समाज विकसित होता गया। भारतीयों के लिए श्रद्धा केन्द्र समान ‘राम‘ एवं ‘रामराज्य‘ भी गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था की ही देन थी।

शिक्षा व्यवस्था के सुव्यवस्थित होने से अन्य सभी व्यवस्थाएँ जैसे कि – अर्थ व्यवस्था, समाज व्यवस्था, परिवार व्यवस्था, राज्य व्यवस्था भी बहुत ही सुगठित थी। शिक्षा व्यवस्था ही अन्य व्यवस्थाओं का आधार है। रीढ की हड्डी जैसी शिक्षा व्यवस्था के कमजोर पडने से ही अन्य सभी व्यवस्था टूटने पर ही सभी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। संपूर्ण राष्ट्र मिट्टी के ढेर की तरह बह गया।

हम सब अच्छी तरह से जानते है कि भारत में विविध प्रजाओं के शासन के समय भारत देश की अन्य व्यवस्थाओं की तरह शिक्षा व्यवस्था भी नष्ट हो गई और उसके कुछ कुछ अवशेष ही बच गये।

अन्य व्यवस्थाओं को अच्छी तरह से चलाना है तो शिक्षा व्यवस्था को टिकाना, स्वस्थ रखना, अति आवश्यक ही नहीं परंतु अनिवार्य भी है।

आज भारत में जिस समस्याओं का हम सामना कर रहे है ! जड में शिक्षा व्यवस्था की ही समस्या है। भारत को सन्‌ 1947 में तथाकथित
स्वतंत्रता मिली तब हमारे हाथ में एक अवसर था कि हम शिक्षा व्यवस्था में मूल से ही सुधार करके सभी व्यवस्थाओं को परिवर्तित कर सके।

भारत के स्वतंत्र होने के तुरंत बाद ऋषितुल्य महामानव श्री विनोबा भावेजी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नहेरुजी को पत्र लिखा था। जिसके अंश ‘ निम्न प्रकार है।

“अब हमारा भारत स्वतंत्र हो गया है तो हमारा पहला कदम यह होना चाहिए कि – संपूर्ण भारतीय शिक्षा पद्धति के गुरुकुल, विद्यापीठ और पाठशालाएँ पुन: स्थापित होनी चाहिए। 6 माह तक सभी मेंकोले एज्युकेशन सिस्टम से चलनेवाली स्कूल्स बंद करवा के गुरुकुल पद्धति से पढे हुए, जो ‘बीज” रूप आचार्य, उपाध्याय, विद्वान बचे है, उनका मार्गदर्शन लेकर ‘भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पुनःजीवित किया जाये। भारत तभी सही अर्थ में स्वतंत्र होगा। जब भारतीय गुरुकुलम्‌ शिक्षा व्यवस्था फिर से खडी होगी।

श्री विनोबाजी भावे का यह सुझाव आज भी हमें आह्ान दे रहा है कि “सभी व्यवस्थाओं के आधार रूप शिक्षा व्यवस्था को पुनः स्थापित करने के लिए तन, मन, धन और जीवन समर्पित करना यही सच्ची राष्ट्रभक्ति या देशभक्ति होगी।

मनुष्य को विद्या से आत्मचिंतन और आत्मविकास की ओर एवं कला से सेवा और परोपकार की ओर ले जानेवाली गुरुकुलम्‌ शिक्षा व्यवस्था भारत की आजादी के बाद भी मुख्य धारा न बन सकी। यह हमारा दुर्भाग्य है और साथ में हमारी लापरवाही भी है।

व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र सभी का रूप गुरुकुलम्‌ व्यवस्था से हटकर फैक्ट्री स्कूल सिस्टम की ओर मुड गया। भारत के लोगों के मन में ‘शिक्षा व्यवस्था’ अर्थात्‌ ‘स्कूल’ यही संकुचित अर्थ में जुड गया। विविध धर्म, संप्रदायों के आगेवानन लोग भी स्कूल निर्माण, संचालन आदि बातों को पुण्यदायक विद्यादान समझकर उसमें ही अपनी मनुष्य शक्ति एवं वित्त शक्तिको रोकते रहे।

भारत में दिन-प्रतिदिन शाला, महाशाला, महाविद्यालय (कॉलेज) बढते गये। कुछ बचे हुए ‘गुरुकुल” भी आर्थिक, सामाजिक एवं राजकीय प्रश्नों के आगे झुककर परास्त हो गये, समाप्त हो गये। ‘गुरुकुल’ की व्यवस्था को कोई आधार न मिला और पूरा भारत फैक्ट्री स्कूल सिस्टम की मायाजाल में फँस गया।

भारत की भोली-भाली श्रद्धालु जनता बहुत जल्दी ही यह सर्वथा अवैज्ञानिक, मानसशास्त्र के तत्काल ही विपरीत। परंतु आकर्षक दिखनेवाली
पूतना जैसी इस व्यवस्था के प्रति ही उदार बन गई। जिसमें से पुष्प जैसे सुवासित जीवन चरित्र निकलते थे ऐसे ‘गुरुकुल’ के पौधे को समाजने सहयोग का जल नहीं सींचा। इसलिए “गुरुकुल’ का वृक्ष धीरे धीरे सूखने लगा।

विषवृक्ष जैसी मेंकोले स्कूल व्यवस्था को समाजने बढावा दिया। उसमे से पढ़कर बाहर निकलनेवाले विद्यार्थियों में कृतज्ञता, सर्जकता, नम्रता, सेवाभावना, तेजस्विता, तपस्विता जैसे गुणों का कोई ठिकाना ही नहीं रहा। परन्तु कृतघन्ता, अंध अनुकरण, कामचोरी, उच्छुृंखलता आदि अनेक दोष नैसर्गिक ही आ गए।

व्यक्तिगत जीवन तो सदगुणों के अभाव से एवं दुर्गुणों के प्रभाव से कंगाल हुआ है। परन्तु ‘परिवार और समाज में कैसे रहना है? इसका व्यवहारिक शिक्षण न मिलने से स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता का नंगा नाच आज पारिवारिक एवं सामाजिक समस्याओं के स्वरूप में चल रहा है। जो आज हम हर घर, समाज में देख रहे हैं।

आज समाज में 20-25 वर्षों से इसी गलत शिक्षा व्यवस्था के दुष्परिणाम कैंसर की तरह फैलते हुए दिखाई दे रहे है।

उसी प्रकार व्यक्ति और समाज को दैनंदिन जीवन में स्वस्थ एवं प्रसन्न रखनेवाली आयुर्वेद और घरेलु चिकित्सा पद्धति क्रमशः लुप्त होने लगी। विदेशी चिकित्सा पद्धति ही मुख्य हो जाने से पथ्यापथ्य की सामान्य समझ और गृहविज्ञान में समाविष्ट आयुर्वेद के सरल नियम भी समाज के दिल और दिमाग से निकलने लगे।

परंपरागत वैद्यों की शृंखला टूटने से आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति जो सबके लिए थी। वह केवल बी. ए. एम्. एस. के छात्रों के लिए ही रह गई। आयुर्वेद आचार्य एवं वैद्य बने हुए वह युनिवर्सिटी के डिग्रीधारी चिकित्सकों में से भी ज्यादातर चिकित्सक विलायती चिकित्सा पद्धति अनुसार ही चिकित्सा और उपचार करते है। क्योंकि उनका आयुर्वेद का ज्ञान भी संपूर्ण नहीं है।

इस प्रकार ‘गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था ‘, “आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति” और “आदर्श गृहस्थाश्रम” यह तीनों व्यवस्थाओं के टूटने पर उसके विकल्प में समाज ने, धर्म, संप्रदाय ने और विविध सामाजिक संस्थाओं ने एवं शासन ने भी अनेक आपत्कालीन व्यवस्थाएँ खडी कर दी। लेकिन लाखों दीपक मिलकर भी सूर्य का विकल्प नहीं बन सकते। हजारों शिक्षक मिलकर भी माता का विकल्प नहीं दे सकते, उसी प्रकार हमारे भारत की यह सुवर्ण जैसी मूल्यवान परंपरा और व्यवस्था धीरे धीरे लुप्त होती गई। उसके विकल्प में खडे हुए हजारों, उपाय सेंकडों प्रयोग
निष्फल या अंशकाल के लिए ही सफल हुए।

समाज के आधार स्तंभ (2॥७७) जैसी यह व्यवस्था छिन्न- विच्छिन्न होने से उसके स्थान पर स्कूल, ट्युशन्स, कोचिंग, होस्पिटल्स, अनाथालय, वृद्धाश्रम जैसी विविध वैकल्पिक व्यवस्थाएँ खडी करना, यह अनिवार्यता बन गई।

सब व्यवस्थाओं का मूलाधार है – ‘शिक्षा व्यवस्था’। शिक्षा व्यवस्था ही संपूर्ण समाज की श्रद्धा और मान्यताओं का केन्द्रबिंदु है। जब जब शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन आया है तब तब समाज, परिवार, राष्ट्र का पूरा नकशा बदल गया है, इसका इतिहास गवाह है।

चाणक्य जैसे आचार्य द्वारा स्थापित किया गया अखंड भारत का उज्जवल इतिहास शिक्षा व्यवस्था से समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यपूर्ण उत्तरदायित्व का निदर्शन कराता है।

वसिष्ठ विश्वामित्र द्वारा संचालित परापूर्व से चली आ रही “गुरुकुल’ शिक्षा व्यवस्था में ही श्री रामचन्द्रजीने अभ्यास किया। उन्होंने अपनी कोई अलग व्यवस्था नहीं बनाई। उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ‘पूर्ण पुरुषोत्तम’ होते हुए भी अपनी कोई यूनिवर्सिटी, एकेडेमी या स्कूल नहीं बनवाई। परंतु पूर्व से चली आ रही “गुरुकुल शिक्षा पद्धति” अनुसार चल रहे सांदिपनी ऋषि के आश्रम में रहकर ही अध्ययन – अध्यापन किया।

रामकालीन समाज, अर्थ और राज्य व्यवस्था के सुआयोजन के कारण आज भी हम ऐसी सुंदर व्यवस्था को ‘रामराज्य” कहते हैं। रामराज्य भी ‘भारतीय शिक्षा पद्धति” का ही उज्जवल परिणाम है।

उसी प्रकार आचार्य चाणक्य, आचार्य जीवक आदि प्रसिद्ध आचार्यों का निर्माण भी हमारे प्राचीन विद्यापीठ तक्षशिला में ही हुआ था।

आज जीवन विकास और समाजोत्थान के लिए शिक्षा के विषय में गंभीर होकर सोचने का समय आ गया है।

“गुरुकुल शिक्षा पद्धति” में चौथा और (अंतिम) शब्द है ‘पद्धति’। कोई भी कार्य करने का तरीका होता है। सही तरीके से कार्य करने पर कार्य में सफलता मिलती है। उसका अच्छा परिणाम भी मिल सकता है।

हमारे शास्त्रों में शिक्षा देने की अलग अलग 26 पद्धतियाँ बताई गई है। इसका वर्णन उपनिषद और अन्य भारतीय ग्रंथों में भी किया गया है।
इन सभी पद्धतियों में से सबसे आदर्श और उत्कृष्ट पद्धति है – ‘संवाद पद्धति’, जिसमें विद्यार्थी और शिक्षक दोनों के बीच संवाद होता है।

इस विश्व की सर्व श्रेष्ठ तत्त्तज्ञान पुस्तक है – ‘ श्रीमद्‌ भगवद्‌ गीता’। ‘श्रीमद्‌भगवद गीता” आदर्श धर्मग्रंथ है, उसी प्रकार “श्रीमद्‌ भगवद्‌ गीता” शिक्षण शास्त्र का भी ग्रंथ है। इस महान ग्रंथ में श्रीकृष्णने संवाद पद्धति से महार॒थी अर्जुन को कर्तव्य का उदबोधन करवाया था। संवादपूर्ण वातावरण में हुए शिक्षण का अद्भुत प्रभाव पूरे जीवनकाल तक रहता था।

संवाद पद्धति यह एक आदर्श शिक्षा पद्धति है। भारतीय पुराणों में भी हम देखेंगे तो शौनकजी प्रश्न पूछ रहे है और सूतजी उसके उत्तर दे रहे है। यह भी शिक्षा पद्धति की एक ‘संवाद पद्धति’ ही है। कठिन से कठिन विषय भी “संवाद” से सरल हो जाते हैं। प्रसिद्ध गणितज्ञ श्री भास्कराचार्यजीने अपनी पुत्री लीलावती के साथ संवाद करते करते ही ‘लीलावती” नामक ग्रंथ लिखा।

“संवाद पद्धति, ‘चिंतनिका पद्धति, “उपदेश पद्धति’ इत्यादि के द्वारा ही भारत में अनेक विषयों के अनेक श्रेष्ठ विद्वान तैयार हुए। यह तीनों पद्धति अधिकतर समांतर जैसी है।

संवाद, चिंतनिका, उपदेश शिक्षा पद्धति जैसी तीसरी शिक्षा पद्धति ‘दृष्टांत पद्धति भी है। इस पद्धति में जिसे जानना सरल है, जो दृश्यमान है। जिसे हम जानते है उसी को उदाहरण के रूप में रखकर अदृश्य एवं अज्ञात विश्व के बारे में बताया जाता है। घरेलू और व्यवहारिक दृष्टंतो के द्वारा आध्यात्मिक तथ्य एवं सत्य की समझ दी जाती है।

“न्याय वैशेषिक’, ‘सांख्य योग” जैसे कठिन दर्शनों का अध्यापन करवाने की यह सरलतम पद्धति है। हमारे परम पूज्य गुरुवर्य श्री विश्वनाथ शास्त्रीजी दातार इसी पद्धति से विविध दर्शन, उपनिषद और आयुर्वेद जैसे कठिन विषय का सरलता से
अध्यापन करवाते थे। आज हम उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करते हुए उपरोक्त सभी
विषय ‘दृष्टांत पद्धति” से सरल बनाकर अध्यापन करवाते है।

चौथी शिक्षा पद्धति है ‘प्रत्यक्ष पद्धति’

इस पद्धति में वस्तु को इन्द्रियों के सामने रखकर उसका ज्ञान करवाया जाता है। इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गंध, शब्द द्वारा वस्तु के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे नीम के वृक्ष के बारे में जानना हो तो प्रथम उसको चक्षु से देखना, उसके पर्ण, पुष्प आदि का रस चखकर उसके कडवेपन का परिचय करना, उसकी गंध का अनुभव करना, स्पर्श के द्वारा उसके विविध अंगों के विषय में जानना। इतना जानकर बाद में उसके औषधीय गुणों को जानना।

इसी प्रकार नदी के बारे में जानना हो तो दूर से उसकी कलकल ध्वनि सुनना, पास जाकर आँखों से उसकी बहती हुई धारा को देखना, नदी के अंदर एवं आसपास खिले हुए पुष्पों की सुगंध का अनुभव करना, स्नान-मार्जन द्वारा नदी के जल को स्पर्श करके उसका आनंद लेना और आचमन आदि द्वारा उसके मधुर रस का स्वाद लेना। यह नदी विषयक ज्ञान प्रत्यक्ष पद्धति से दिया जाता था।

इसलिए प्रवास, पर्यटन, पर्वतारोहण, जंगल, दर्शन इत्यादि भी शिक्षा के लिए बहुत ही उपयोगी माने जाते थे। भूगोल-खगोल, वनस्पति शास्त्र, जीव विज्ञान, आयुर्वेद, धातुविज्ञान आदि विषयों पर अधिकतर इस पद्धति से ही अभ्यास करवाया जाता था।

पूरे विश्व से परिचित करानेवाले स्थान को सही अर्थ में विश्व विद्यालय कहते है। चार दिवारों के अंदर जो दिया जाता है वह केवल परीक्षालक्षी, जीविका केन्द्रित शिक्षण है। वास्तव में वह विद्या या ज्ञान ही नहीं है। बाल्यावस्था में स्थानिक स्तर (००३ ।.७५९॥)) के इतिहास, भूगोल का प्रत्यक्ष ज्ञान ‘गुरुकुल’ में दिया जाता था। तरुण अवस्था में अपने प्रांत, राज्य, राष्ट्र के इतिहास, भूगोल से इस पद्धति से परिचित करवाया जाता था।

अपने स्थानीय और राष्ट्रीय गौरवपूर्ण इतिहास का ज्ञान कथा, प्रवास, चर्चा, व्याख्यान, प्रवचन, वक्तव्य, नाटक, आदि प्रत्यक्ष साधनों से प्राप्त करके विद्यार्थी स्वाभिमानी और तेजस्वी होता था। उसके बाद उसको पूरे विश्व के इतिहास में हुए उज्जवल चित्रों से परिचित करवा के “वसुधैव कुद्ुम्बकम्‌’ की उदात्त भावना को प्रस्सुटित किया जाता था। इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, विज्ञान, आयुर्वेद जैसे कठिनतम विषय इसी पद्धति से सरलतम बनाकर पढाये जाते थे।

पाँचवी शिक्षा पद्धति है ‘परोक्ष पद्धति’।

प्रत्यक्ष पद्धति में जो वस्तु प्रत्यक्ष है उसका ज्ञान इन्द्रियों माध्यम से कराया जाता है। परोक्ष पद्धति में जो बातें प्रत्यक्ष नहीं है, जैसे की गुण, भाव, आत्मा आदि।

उसको विविध जीवंत या दिवंगत चरित्रों के उदाहरण द्वारा परोक्ष बताया जाता था। विशेष करके कथा, गीत, एवं नाटक द्वारा उसको प्रह्लाद, ध्रुव, नचिकेता , आरुणि , उपमन्यु की बातें सुनाकर उनके जैसे महान बनने की इच्छा जगाई जाती थी। वही इच्छा उसके अंतःकरण में रही दिव्य शक्ति को जागृत करती थी। प्रति के शल्य कर सैर तेजस्वी, चंद्र जैसे सौम्य एवं अग्नि जैसे प्रतापवान युवान समाज में आते थे। संपूर्ण गृहशिक्षा और धर्मशिक्षा प्राप्त की हुई युवती के साथ अपना आदर्श गृहस्थाश्रम प्रारंभ करते थे। ऐसी 26 पद्धतियों का विवरण उपनिषद आदि ग्रंथों में मिलता है।

इन सभी शिक्षा पद्धतियों में एक बात सामान्य थी कि सबसे प्रथम पढनेवाले की जिज्ञासा और ज्ञान पिपासा को जागृत की जाती थी। जैसे आयुर्वेद अनुसार भूख लगने पर रूखी सूखी रोटी भी खा ली तो उसका खून बनेगा। वह आहार शक्ति देगा।

कालभोजनम्‌ पथ्यकराणाम्‌’। अर्थात्‌ उचित समय पर (जब भूख लगे तब) खाना सब से पथ्य (पालन करने योग्य) बात है। इससे विपरीत यदि भूख नहीं है तो मिठाई-मेवे खाने से भी ताकत नहीं आयेगी पर अजीर्ण हो जायेगा। उसी प्रकार उत्कृष्ट प्रकार का ज्ञान भी तभी पचता है, जब ज्ञानपिपासा – जिज्ञासा जागृत होती है। विद्यार्थी की जिज्ञासा जागृत करना यह शिक्षक का प्रथम कर्तव्य है। जिस तरह एक बार भूख जागृत होती है, तो रूखी सूखी रोटी भी मीठी लगती है। उसी प्रकार यदि जिज्ञासा जागृत हो गई तो ज्ञान के स्रोत भी मिल जायेंगे।
प्रकृति का हर तत्त्व उसका गुरु बनेगा और वह हर जगह से ज्ञान पायेगा।

योग्य समय पर भूख लगाना, यह स्वास्थ्य का रोग नाश का लक्षण है। आयुर्वेद में बताया गया है कि – “अर्धरोगहरी निद्रा, सर्वरोगहरी क्षुधा।’
अच्छी नींद आ जाना, आधा रोग गया यह बताता है और अच्छी भूख लगती है तो समझ लेना है कि रोग चला गया है।
जैसा शरीर का है वैसा ही मन बुद्धि का है। सम्यक्‌ क्षुधा निद्रा निरोगी शरीर का मापदंड है। उसी प्रकार स्वस्थ मन बुद्धि का मापदंड है, ज्ञान की भूख लगना, जिज्ञासा होना, ज्ञान की यह पिपासा ही मनुष्य को सही अर्थ में विद्वान और पण्डित बनाती है।

मनुष्य मात्र का अंतिम लक्ष्य है – आत्मा का उर्ध्वीकरण यानि विकास। आत्मा की उन्नति ज्ञान के बिना संभव नहीं है।

ज्ञानविहीन: सर्वमतेन, मुक्ति न भजति जन्मशतेन।

‘गुरुकुलम्‌ शिक्षा पद्धति’ में सर्व प्रथम ज्ञान की भूख बढाने का प्रयत्न होता था। जैसे जैसे भूख बढेगी वैसे वैसे क्रमशः ही उसे ज्ञान देना है। बिना अधिकार (योग्यता) के मिली हुई विद्या ज्ञान उपार्जन के लिए नहीं परंतु मात्र विवाद हेतु ही काम में आती है। जगत में सब से बडा अहंकार विद्या और ज्ञान का है। साक्षर” जब अहंकारी हो जाता है तब ‘राक्षस’ बन जाता है।

‘मैं सब कुछ जानता हूँ, मुझे कोई नहीं पढा सकता।’ ऐसी धारणावाला व्यक्तित्व अहंकार पूर्ण होता है। ऐसे लोगों की मान्यता होती है कि – नो ओने कैन टीच में एनीथिंग

हमारे यहाँ ऐसे अहंकार व्यक्ति को ‘राक्षस” या ‘असुर’ की संज्ञा दी है। अहंकार ही पाप का मूल है। नम्रता ही सर्व सदगुणों की जननी है। तो विद्यार्थी में जिज्ञासा के साथ साथ “नग्नता” का गुण भी अनिवार्य रूप में होना ही चाहिए।

“अहंकार’ जैसी ही घातक बात है ‘संकुचितता’, ‘संकीर्णता’, “जडता। यह समग्र विश्व एक ‘पाठशाला’ है। प्रकृति का हर एक तत्त्व “गुरु” है। ऐसी विस्तीर्ण विभावना को त्याग करके हम कोई एक ही व्यक्ति या संस्था से जुडकर इतने संकीर्ण, संकुचित और बौने हो जाते है कि, ऐसा सोचने लगते है। की समवन कैन टीच में एवरीथिंग ऐसी संकुचित मान्यतावालोंने हमारे विश्वव्यापी सर्वस्वीकारक धर्म का बहुत बडा अपराध किया है और कर भी रहे है।

रुचिनां वैचित्रयाद ऋजुकुटिलनाना पथजुषां।
नृणामेकोगम्य: त्वमसि पचसामर्णव इव।।

(शिवमहिम्नः-७)

ऐसा कहनेवाला, माननेवाला हमारा सनातन धर्म है। संकुचित सोच रखनेवाले अनुयायी वर्ग अपने ही गुरु की व्यापक विचारधारा को संकीर्ण करके स्वयं अपने ही धर्म संप्रदाय की हानि करते है। हमारी भारतीय विचारधारा बहुत ही व्यापक होने के कारण हम जन्म से लेकर मृत्यु पर्यत सब से कुछ न कुछ सीखते रहते है। गर्भ से ही हमारा शिक्षण आरंभ हो जाता है, पूरे जीवनकाल में हमें गुरु मिलते है, उन सब से सीखकर ही हम धीरे धीरे पूर्णता की ओर प्रयाण करते हैं।

. “श्रीमद्‌ भागवतम्‌’ में प्रकृति के तत्वों में से ही 24 तत्त्वों को “गुरु” बनाने वाले अवधूत भगवान श्री दत्तात्रेय की पुनीत कथा है। सबके पास से कुछ न कुछ सीखते रहने का नाम ही मनुष्य जीवन है। “ गुरुकुल’ के छात्रों में ज्ञानप्राप्ति के लिए उपयोगी ऐसे जिज्ञासा, नम्नता, सेवा जैसे गुणों का सिंचन गुरु के आचरण और ‘गुरुकुल’ के वातावरण से किया जाता था। उसके मन में यही धुन सदैव चलती रहती है की –

‘मन में एक ही लगन लगी, मुझ को पढने की, सारे जग को मान गुरु, सारे जग में देख गुरु आगे बढ़ने की।’

ऐसी भाव अवस्था प्राप्त होने पर पूरा विश्व उसके लिए “गुरु” बन जाता।

यही उसके जीवन का सूत्र बन जाता। संकीर्णता और छोटी सोच से उपर उठकर वह पूरे विश्व के सुख, शांति और कल्याण के लिए प्रयत्नशील होता था।

उपनिषद की कथाओं में ऐसे कंई दृष्यंत मिलते है कि पूरी प्रकृति ही मनुष्य के लिए शिक्षिका बन जाती है। जैसे श्वेतकेतु अपने गुरु की आज्ञा से वन में जाकर अग्नि और वृक्ष से विद्या प्राप्त की।

मनुष्य की दृष्टि जब गुणग्राही और विद्याग्राही हो जाती है तब वह महान हो जाता है। भगवान दत्तात्रेय जो 24 गुरु है, वे कोई ऋषि-महर्षि नहीं हैं, परंतु पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सागर जैसे प्राकृतिक तत्त्व, तितली, साँप, हिरन, हाथी, मछली, भँवरा, चील, कबूतर जैसी मनुष्येतर सृष्टि, बालक, कुमारिका, पिंगला जैसे सामान्य मनुष्य आदि है। दत्तात्रेयजी की मनोवृत्ति ही ज्ञानग्राही हो गई थी। इसलिए उनको सब से ज्ञान की प्राप्ति हुई।

ऐसी ही व्यापकता, विस्तीर्णता, विचारों की उदारता, आयुर्वेद के प्रभुत्व आचार्य चरक ऋषि के जीवन चरित्र में देखने को मिलती है। चरक ऋषि के गुरुकुल से जब छात्र पढाई करके अपने-अपने क्षेत्र में जाते तब जो समावर्तन संस्कार होता है – उसमें चरक ऋषि विद्यार्थियों को कहते थे कि –
कृत्स्नो हि लोको बुद्धिमत्तां आचार्य:”’
उपरोक्त श्लोक का भावार्थ है कि संपूर्ण जगत बुद्धिमान लोगों का आचार्य हैं। आप जहाँ भी जाओ एक ही सूत्र याद रखो – सीखो और सिखाओ। सीखना और सीखना ही मनुष्य जीवन का मुख्य ध्येय होना चाहिए।

उत्तम व्यक्तित्व की यही पहचान है कि वह बोले कम और सुने अधिक, कहे कम और करे अधिक, ले कम और दे अधिक। ज्ञान की प्यास ही जीवन विकास का प्रथम चरण है।

“गुरुकुलम्‌ शिक्षा पद्धति” इस शब्दों का पूर्ण विवेचन हमने किया। इस पूर्ण शिक्षा व्यवस्था का प्राणतत्त्व है ‘आचार्य’ अब हम उन आचार्य से
संबंधित कुछ विवेचन करेंगे। आचार्य शिक्षा व्यवस्था का केन्द्रबिन्दु है। भारतीय व्यवस्थाओं में प्रत्येक व्यवस्था का केन्द्रबिन्दु कोई न कोई होता है। जब तक केन्द्रबिन्दु स्वस्थ और सुरक्षित रहेगा तब तक सारी व्यवस्था सुचारु रूप से चलेगी। परंतु जब यह बिन्दु नष्ट- भ्रष्ट होगा तब यह व्यवस्था नहीं चल सकेगी। उदाहरणार्थ – भारतीय अर्थव्यवस्था का केन्द्रबिन्दु प्राणतत्त्व गाय है, कृषि है। जब तक गाय और कृषि स्वस्थ और सुरक्षित है तब तक अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है। जैसे ही गाय एवं कृषि को गौण करके या उसकी उपेक्षा करके अर्थतंत्र को सक्षम बनाने के प्रयोग प्रारंभ हुए वैसे-वैसे हमारी पूरी अर्थव्यवस्था लुट गई, दुर्बल हो गई। गरीबी, बेरोजगारी इत्यादि आर्थिक समस्याएँ आज मुँह फाडकर हमारे राष्ट्र के सामने खड़ी हैं। उसका एकमेव कारण यही है कि रीढ़ की हड्डी जैसे महत्त्वपूर्ण अर्थतंत्र के केन्द्रबिन्दु समान प्राणतत्त्वरूप ‘गाय और कृषि’ दोनों की हो रही घोर उपेक्षा! जब तक गाय और कृषि को पुनः अर्थव्यवस्था के केन्द्र में नहीं लाया जायेगा तब तक भारतीय अर्थव्यवस्था पुनः जीवित नहीं हो पायेगी। उसी प्रकार धर्म और अध्यात्म का केन्द्रबिन्दु ‘स्त्री’ है। स्त्री के स्त्रीत्व रक्षण द्वारा ही धर्म और अध्यात्म की व्यवस्था सुंदर और सुचारु रूप से चलती थी। इसलिए शास्त्रों में भी बताया गया है कि ‘*स्त्रीत्वेन हि रक्षणेन रक्षितः स्यात्‌ वैदिको धर्म:।” अर्थात्‌ स्त्रीत्व के रक्षण करने से ही वैदिक धर्म का रक्षण हो सकता है।’

आज स्त्री को सही अर्थ में शिक्षा और संस्कार नहीं दिये जाते है। स्त्री में साहजिक और नैसर्गिक गुणों का विकास हो इस प्रकार की शिक्षा उसे बाल्यावस्था से ही मिलनी चाहिए। यह शिक्षा अधिकतर उसे घर के वातावरण से ही प्राप्त हो जाती थी। परंतु आज पिछली तीन जनरेशन से यह संस्कारों का हस्तांतरण ही रूक जाने के कारण गृहस्थाश्रम और कौटुंबिक जीवन में अनेक समस्याओं का आगमन होने लगा है। घर में बुजुर्गों के प्रति मान आदर का भाव, आतिथ्य-सत्कार, संतजनों का आना जाना यह सब धीरे धीरे कम होते होते नष्ट होते जा रहा है। कारण वही है –

‘गृहशिक्षा’, सस्त्रीशिक्षा’, *बालिकाशिक्षा’ का अभाव।

आज की शिक्षा व्यवस्था में हमारी बेटी-बहनों को अपना जीवन सुंदर बना सके, अपने शील-चारित्र का रक्षण करके आदर्श पत्नी और उत्कृष्ट माता बन सके, ऐसा कोई संस्कार नहीं दिया जाता है। स्त्रीयों को उपयोगी हो, परिवार को उपयोगी हो कोई शिक्षा जैसे गृह व्यवस्थापन, शिशु संगोपन, पाकशास्त्र, संगीत, नृत्य आदि कलाएं या जीवनोपयागी संस्कार कुछ भी शाला, विद्यालय, महाविद्यालयों में नहीं मिलते है।

जिस विषय पुरुषों को पढने के है, वही विषय अनिवार्य रूप से स्त्रीयों को पढ़ाये जाते है। इसके कारण स्त्री अपनी साहजिक लज्जा, कारुण्यभाव, प्रेम धीरे-धीरे खोने लगती है। यह एक स्त्री के स्त्रीत्व के साथ हो रहा बहुत बडा अन्याय है।

एक स्त्री के शिक्षण और संस्कार से पूरा परिवार शिक्षित-संस्कारित होता है। स्त्री को उचित शिक्षा और संस्कार नहीं मिलने के कारण पूरी गृहव्यवस्था सुंदर और सुचारु रूप से नहीं चलती है।

आचार्य : शिक्षा व्यवस्था का मेरुदण्ड
जिस प्रकार धर्म, अध्यात्म एवं परिवार व्यवस्था का आधारस्तंभ, केन्द्रबिन्दु रीढ की हड्डी की तरह स्त्री है। उसी प्रकार भारतीय शिक्षा व्यवस्था या गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था का मेरुदण्ड “गुरु” या “आचार्य” है। शास्त्रों में आचार्य शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है।
“आचिनोति च शास्त्राणि, आचारे स्थापयत्यपि।
स्वयमाचरते यस्मात्‌ तस्मात्‌ आचार्य उच्यते।।

अर्थात्‌ जो शास्त्रों का ज्ञान रखता है एवं शास्त्रों के सिद्धांत और नियमों को अपने जीवन में उतार कर, उसी प्रकार जीवन व्यतीत करता है, त्याग, तप, शील, संयम आदि गुणों के आचार द्वारा ही वह प्रचार का कार्य करता है। केवल वचन से नहीं, अपितु जीवन से जो उपदेश देने का कार्य करता है, वही ‘आचार्य’ है।

“गुरु’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के कारण ही ‘गुरुकुलम्‌’ ऐसा विद्यास्थान को नाम मिला। गुरुगृह, गुरुमाता एवं गुरु के संतानों के साथ एक ऐसी परिवार भावना और आत्मीयता निर्माण होती है। जिसे वह जीवनभर भूल नहीं पाता है। गुरु या “आचार्य” के हाथ में सभी निर्णय करने की स्वतंत्रता होने से उसका सामर्थ्य बढ जाता है। एक समर्थ आचार्य है। साम्राज्य पलट सकता है। राज्य और एक समर्पित शिष्य मिलकर इतिहास बदल सकता है राज्य व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, समाज व्यवस्था इत्यादि, सभी व्यवस्थाओं की तसवीर बदल सकता है।

भारत में ऐसे अनेक गुरुकल विद्यमान थे। उस वक्‍त सभी व्यवस्था अच्छी तरह चल रही थी। आज हम देख रहे है कि रीढ़ की हड्डी जैसी गुरुकुल व्यवस्था और उसके आधारस्थंभ आचार्य के रहने से कदम-कदम पर हर व्यवस्था बद से बदतर
होती जा रही है।

आज वर्तमान शिक्षा पद्धति के दुष्परिणाम हम देख ही रहे है, इतना ही नहीं अनुभव भी कर रहे है। आज कदाचित्‌ ‘गुरुकुल’ हम स्थापित भी करे तो ‘गुरुकुल शिक्षा’ से पढे हुए और भारतीय संस्कृति को संपूर्ण समर्पित “आचार्य” का मिल पाना बहुत ही मुश्किल है। सभी प्रकार की अन्य व्यवस्था खडी कर देने से “गुरुकुल’ नहीं बनता है। ‘गुरुकुल तो बनता है ‘गुरु या “आचार्य” से। चाहे वह छोटी सी झोंपडी में क्‍यों न बैठा हो। इसलिए चरक सूत्र में भी बताया गया है कि “आचार्य शास्त्राधिगमहेतुनाम्‌।’

शास्त्राधिगम (अध्ययन) करने की सामग्री में “आचार्य” ही प्रधान है। इसकेलिए हमारे पूज्य गुरुवर्यश्री बताते थे कि –

जहाँ राम है वहीं “अयोध्या’ है। जहाँ राम नहीं वह ‘अरण्य” है। यदि राम ‘अरण्य’ में है तो अरण्य भी “अयोध्या’ है। बिना राम के “अयोध्या” भी ‘अरण्य’ है। उसी प्रकार जहाँ निर्णायक भूमिका में आचार्य है वही ‘गुरुकुल’ है। चाहे वह कुटिया में ही क्‍यों न हो, ऐसे आचार्य के बिना विशाल और भव्य भवन भी “गुरुकुल’ नहीं है। अतः गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था पुनः स्थापित करने के लिए आचार्य निर्माण’ इस युग का आह्वान है।

‘संस्कृति आर्य गुरुकुलम्‌’ पिछले कंई वर्षों से ‘आचार्य निर्माण योजना’ के अंतर्गत शिबिर, संभाषा सभा, दीर्घकालीन कार्यशाला इत्यादि का आयोजन करके समाजपुरुष में रहा हुआ सुषुप्त ‘आचार्यत्व” जगा रहा है। एक आदर्श आचार्य के नेतृत्व में अनेक विद्यार्थी, तेजस्वी युवान बनेंगे। भारत के पुनः निर्माण में तन, मन और धन से लगेंगे। इसलिए आचार्य बृति का निर्माण आज के समय की प्राथमिक माँग है।
जब भारतीय शिक्षा व्यवस्था को तोडना था तब विधर्मियों के द्वारा उठाया गया प्रथम चरण गुरुकुल और गुरुकुल के आचार्यों को नष्ट-भ्रष्ट करना ही था। तो हर जब हम शिक्षा व्यवस्था को पुनः स्थापित करने का पुरुषार्थ कर रहे है तो उसमें भी पहला चरण – “आचार्य निर्माण” का ही होना चाहिए। आचार्य का निर्माण अर्थात्‌ “आचार्य वृत्ति का निर्माण’।

‘आचार्य न कोई पद है, ना कोई डिग्री है। आचार्य तो जीवन की सर्वोत्तम ऐसी वृत्ति है।’

आचार्य के प्रमुख 5 गुण है:

  1. चारित्र्य की शुद्धि
  2. ईश समर्पित बुद्धि
  3. विनय युक्‍त वर्तन
  4. प्रसन्‍नता युक्त मन
  5. परोपकार युक्त जीवन।

आचार्य का प्रथम गुण है “चारित्र्य की शुद्धि’। आचार्य चारित्रय संपन्‍न होना चाहिए। चारित्रयविहीन ज्ञान विष के समान है। मात्र ज्ञान होना पर्याप्त नहीं है। बालक केवल वही नहीं सीखता होता है, जो उसे पढाया जाता है। बालक सब से अधिक सीखता है, अपने गुरु एवं आचार्य के चारित्र्य संपन्‍न व्यवहार से। इसलिए केवल अच्छी तालीम पाये हुए शिक्षक, विषयों के अच्छे जानकार शिक्षक एवं आचार्य होंगे ही नहीं है। आचार्य ज्ञानी होगा परंतु ज्ञानी आचार्य होगा ही ऐसा नहीं कह सकते।

“चारित्र्य” ही मनुष्य का सच्चा परिचय है।
“चारित्र्य’ क्षय में ही सर्व का क्षय है।
स्वयं पर साध के शासन, बना जो आचार्य
प्रचूर ज्ञान के साथ में उसमें विवेक-विनय है।
चारित्य की असीम महिमा सभी धर्म ग्रंथों में बताई गई है।

शुद्ध निष्कलंक चारित्रयवाले आचार्यों के अभाव में कोई भी शैक्षणिक संकुल मात्र एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनकर ही रह जाता है। जहाँ धन के बदले पेट भरने की कलाएँ सिखाई जाती हैं। दुःख की बात तो यह है कि ‘गुरुकुलम्‌’ नामधारी संस्थानों ने भी गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था और चारित्रयवान आचार्यों का अभाव ही है।

आचार्य का दूसरा प्रमुख गुण है ‘ईश समर्पित बुद्धि | विश्व चाहे इधर या उधर हो जाय, परंतु आचार्य की ईशश्रद्धा डगमगायें नहीं। तकलीफ, कष्ट, असुविधा, निच्फलता और अपयश में भी जिसकी ईश समर्पित बुद्धि विचलित नहीं होती है वह “गुरु” एवं सच्चा “आचार्य” है। ईश्वर जिनके लिए साधन नहीं, अपितु साध्य है वही आचार्य है। ऐसा आचार्य कभी भी निराश नहीं होता है।

परमात्मा के प्रति पूर्ण विधास जिनका न हो वह चाहे कुछ भी बन जाय, परंतु आदर्श वैद्य या उत्तम आचार्य तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि चिकित्सा एवं शिक्षण यह दोनों सेवा से ही होने चाहिए, व्यवसाय वृत्ति से नहीं। यदि यह सेवामय नहीं रहेंगे तो लूट ही होगा। जो आज हम देख रहे है। क्योंकि इन दोनों क्षेत्रों से दिव्यत्व तो कब का समाप्त हो चुका है। अब मानवीयता भी बिदा ले रही है। ईशश्रद्धा से ही मनुष्य विपरीत परिस्थितियों से भी अपने सिद्धांत और आदर्श टिकाये रखने का आंतरिक सामर्थ्य प्राप्त करता है।

तदुपरांत ईश समर्पित बुद्धि से निकला हुआ निर्णय ही स्वयं और अन्य का कल्याण कर सकता है। ईश समर्पित बुद्धियुकत जीवन की मस्ती ही कुछ ओर होती है।

दुःख उनको डिगा नहीं सकता। सुख उनको लुभा नहीं सकता। समर्पित प्रभु में हुई जिनकी बुद्धि, उन्हें जगत में कोई झुका नहीं सकता।

विद्यार्थियों के उपर ऐसी ईशनिष्ठ बुद्धि का अदभुत प्रभाव पडता है। ऐसे गुरु के सांनिध्य और सामीष्य मात्र से शिष्यगण जीवन प्रेरणा प्राप्त करते है। साक्षात्‌ भगवान भी ऐसे ईशपरायण गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार करते है, जैसे वशिष्ठ के ज्ञानोपदेश प्राप्त करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामने और महर्षि सांदिपनी के सांनिध्य में 14 विद्याओं और 64 कलाओं का शिक्षण ले रहे पूर्ण पुरुषोत्तम श्री कृष्णने ईंशनिष्ठ आचार्यों की महानता का प्रत्यक्ष प्रमाण अपने अवतार काल में दिया है।

आचार्य का तीसरा गुण है ‘विनय युक्त वर्तन (व्यवहार)’। आचार्य की अध्यापन करवाने की पद्धति तो शास्त्रीय ही होती है। परंतु साथ में आचार्य का पूर्ण जीवन व्यवहार विनय और नग्रता के आधार पर होता है। शिष्य से या अपने से कम आयु के मनुष्य से भी ज्ञान प्राप्त करने में या तो कुछ सीखने में जिनको झिझ्क नहीं होती, वह आचार्य” है। आजीवन विद्यार्थी बनकर जड़-चेतन सब से जो सदैव कुछ न कुछ बोध प्राप्त करता रहता है, वही “आचार्य” है। ”मैं सब कुछ जानता हूँ, मुझे कुछ पढने-सीखने की आवश्यकता नहीं है।’” ऐसा अहंकार रखनेवाला “आचार्य हो ही नहीं सकता। गुरुओं के गुरु अवधूत दत्तात्रेय के 24 गुरु थे, यह तो सर्व विदित बात है।

“सरलता” – यह आचार्य की विशेषता है। आचार्य अपने सरल एवं निच्छल जीवन और वर्तन से शिष्यों के जीवन पर गहरा प्रभाव छोड जाते है। आचार्य का विनययुक्‍त व्यवहार शिष्यों को ऐसा ही जीवन जीने के लिए प्रेरणा देता रहता है। “दिखाने के अलग, चबाने के अलग’ ऐसा आचार्य के जीवन में नहीं होता है।

‘वाणी, विचार, व्यवहार जिनके एकरूप है, वही ‘महात्मन्‌’ है।’
मनस्थेकं वचस्येक॑ कर्मस्येक॑ महात्मनम्‌।
मनसयन्यत्‌ वचस्यन्यत्‌ कर्मण्यन्यत्‌ दुरात्मनम्‌।॥।

आचार्य का चौथा गुण है ‘प्रसन्‍नता युक्त मन‘। निःस्पृहता और निष्पापता के बिना मन प्रसन्‍न होना असंभव है। “आचार्य” को शास्त्राधार के बिना कुछ कहना नहीं है| किसी से कुछ भी माँगना नहीं है इसलिए वह निःस्पृह है। निःस्पृहता से ही निर्भयता आती है। निर्भय मन ही प्रसन्‍न रह सकता है। प्रसन्‍नता युक्त मन यह ज्ञान का परिपाक है। क्योंकि आचार्य ज्ञानी है इसलिए वह सदैव प्रसन्न रहता है।

अप्रसन्‍न और अस्वस्थ मन से कभी भी सद्विचारों का उद्भव नहीं होता है। अप्रसन्‍न मनवाले व्यक्ति स्वयं तो व्यग्र रहते ही है, दूसरों को भी व्यग्र बनाते है।

निष्पापता होने से भी आचार्य ‘प्रसन्‍न’ है। आचार्य के द्वारा होता प्रत्येक कर्म से होता है। इसलिए अनजाने में भी पाप हो जाने की संभावना नहीं रहती है।

प्रसन्‍नता ‘सुख’ या ‘साधन’ में नहीं है। प्रसतनता केवल ‘अर्थ’ या “धन’ में नहीं है। खुशी न दे पायेगी सुविधाएँ सारे जग की, सुख न मिलेगा, प्रसन्‍नता जो “मन’ में नहीं है।

आचार्य सदा कर्मशील है। अकर्ता भाव से पूर्ण निष्ठा के साथ, ईशश्रद्धा रखकर वह अपने कर्तव्यों का पालन प्रामाणिकता से करता है। ‘दूसरा कोई उसे बडा मान ले, फिर भी वह बडा नहीं है।” उसका गुरुत्व तो स्वयंसिद्ध है। इसलिए जनकृपा या जनमनरंजन के लिए वह अपने सिद्धांतों और आदर्शो से विमुख नहीं होता है। इसी कारण से भी वह सदैव प्रसन्न है। निंदा स्तुति के विषय में उसका व्यवहार भतृहरि के सुभाषित जैसा है।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्तुवन्तु-
लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्‌।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात्पथात्‌ प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।।

धैर्यवान आचार्य विपरीत संयोगो में भी प्रसन्‍न ही रहता है। उसकी यह प्रसन्‍नता शिष्यों के लिए प्रेरणादायी है। उसके सांनिध्य में सब विषादों की विस्मृति हो जाती है।

प्रसन्‍नता ही जीवन का सच्चा प्रसाद है । सुखवदुः खादि द्र्न्दो में समबुद्धि को धारण किया हुआ आचार्य ‘प्रसाद’ को प्राप्त करता है। अपनी प्रसन्‍नता से यह अन्यों को भी सन्मार्ग के प्रति प्रेरित करता है।

आचार्य का पाँचवा गुण है ‘परोपकार युक्त जीवन/। मनुष्य जीवन में यदि पर-उपकार न हुआ तो यह जीवन पशु से भी बदतर है। क्योंकि पशु भी पर-उपकार करता है। वृक्ष भी पर-उपकार करता है। नदीयाँ भी लोकहितार्थ ही बहती रहती है। इसलिए सुभाषितकार कहते है जो पर-उपकार बचपन में हर बालक को सिखाया जाना चाहिए। जिससे उसे पर-उपकार की प्रेरणा प्राप्त हो।

परोपकाराय फलन्ति वृक्षा: परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकराय वहन्ति नद्या: परोपकरार्थ मिदम्‌ शरीरम्‌।।

आचार्य” सब के होते है। अपने सरल स्वभाव और प्रकृष्ट ज्ञान से न केवल वह सब को आकर्षित करता है। परन्तु प्रेम और सेवा से, परोपकार और मधुर वाणी से वह सब को अपना बना लेते है। शिष्य के उपर तो उसका आत्यंतिक उपकार भाव होता है। ‘गुरु’ के लिए प्राणार्पण करने को तत्पर हुए “शिष्य की कथायें तो बहुत ही प्रचलित है। लेकिन इतिहास के पन्‍ने पलट कर आज एक ऐसी कथा को जानेंगे। जिसमें शिष्य के उपर उपकार करने हेतु योग्य शिष्य को विद्या देने के लिए आचार्यने अपना मस्तक धर दिया है।

धर्मरिण्य प्रदेश में साभ्रमती (साबरमती) नदी के तट पर एकान्त आश्रम में दध्यड ऋषि का पवित्र गुरुकुल स्थित था। जहाँ देश के कोने कोने से बहुत से जिज्ञासु मधुविद्या’ सीखने आते थे। ‘मधुविद्या’ एक ऐसी अदभुत विद्या है, जिससे मनुष्य सब दुःखों से मुक्त हो जाता है और आत्मज्ञान को प्राप्त करता है।

दध्यड ऋषि का नित्यक्रम था कि अग्नि की उपासना करके अध्यापन करवाना। दिन की भाँति आज भी जब वे अध्यापन कक्ष में आये तो गुरुकुल के विद्यार्थियों के साथ एक अन्य व्यक्ति दर्भासन पर बैठा था।

दध्यड्‌ ऋषिने उनसे पूछा : ‘आप कौन है?’ ‘किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं। प्रथम तो आप मुझे बचन दे कि मैं जो भी कहूँगा आप मान लेंगे।

दध्यड्‌ ऋषि तो सोच में पड गये। उन्होंने आज तक कोई ऐसा अतिथि नहीं देखा था कि जो अनुज्ञा लिए बिना गुरुकुल में प्रवेश करें। अपना परिचय देने पूर्व ऐसे वचनबद्ध कर ले। गुरुकुल की मर्यादा से विपरीत बात थी, तथापि दध्यडू ऋषि अत्यंत परोपकारी और सरल चित्त के थे। वे उन आगंतुक के वचनबद्ध हुए।

आगंतुकने कहा ; “मैं देवराज इन्द्र हूँ। स्वर्ग में मैंने सुना कि आप मधुविद्या का अध्यापन करवाते हैं स्वर्ग में वह विद्या नहीं मिलती है। इसलिए मुझे यहाँ आना पड़ा, आप मुझे मधुविद्या का अध्यापन करवायें।’

देवराज इन्द्रने दध्यड ऋषि से मधुविद्या प्राप्त की। तब समावर्तन संदेश में दध्यडू ऋषिने कहा : ‘हे देवराज! आपने मम नगद था। इसलिए मुझे यह विद्या आपको देनी पडी, परंतु वास्तव में तो आप इस विद्या के अधिकारी नहीं हो। आप में राग, द्रेष, अभिनिवेश, काम, क्रोधादि दुर्गुण भरे पडे है। भोग की इच्छा प्राणी के आत्मा का नाश करती है। इन क्षणभंगुर विषयों का मोह त्याग से आत्मा में रति (प्रेम) हो – यही विद्वानों का लक्षण है। भोग भोगनेवाले देवतागण और पृथ्वी के क्षुद्रतम पशु-धान में क्या अंतर है? इसलिए अब से आप इस विद्या की प्रतिष्ठा बनाये रखें। अपने आप को इन सभी दोषों से मुक्त करके आत्मनिष्ठ बनना होगा। तब आपको इसका लाभ प्राप्त होगा। अन्यथा आप विद्या
और विद्यादाता दोनों को लेकर डूबेंगे।’

यह बात सुनते ही देवराज इन्द्र को इतना क्रोध आया कि जैसे अभी वज्र से दध्यडं ऋषि का मस्तक धड से अलग कर दूँ। परंतु अपने आपको संयत करके देवराज इन्द्रने कहा : “दध्यड ऋषिजी! देखिए, आज के बाद किसी को भी यह विद्या का अध्यापन करवाया तो आपका मस्तक सुरक्षित नहीं रहेगा।’

इस प्रसंग के बाद भी दध्यडू ऋषि तो अपने कृपापात्र विनयी शिष्यों को विद्या का अध्यापन करवाते रहे। परंतु इस घटना की बात उन्होंने अपनी पत्नी को बता दी। पत्नीने शिष्यगण को बता दी। अब सौभाग्य की रक्षा के लिए ऋषिपत्नी अपने पति दध्यड्‌ ऋषि को यह “मधुविद्या” का किसी को अध्यापन नहीं करवाने देती थी। शिष्यगण भी गुरु के वध के भय से यह ‘मधुविद्या’ अपने गुरु दध्यड्‌ ऋषि से अध्यापन करने को तत्पर नहीं होते थे।

एक दिन दध्यड ऋषि के पास दो स्वरूपवान युवक आये। दध्यड्‌ ऋषिने उनसे उनका परिचय पूछा।

तब भक्तिभाव पूर्वक वंदन करके उन युवकोंने कहा : हि महर्षि! हम दोनों अब्विनी कुमार है। आज तक हमने कभी भी असत्य का उच्चारण नहीं किया है। किसी को भी कोई दुःख या पीडा नहीं पहुँचाई है। जहाँ तक संभव हुआ हमने प्राणीमात्र की सेवा की है। हमने पर-उपकार करने हेतु ही चिकित्सा शास्त्र सीखा।

है स्वर्ग से लेकर मृत्युलोक तक जो भी त्रस्त-रोगग्रस्त व्यक्ति हमें याद करती है, हम वहां दौडकर चले जाते है। उसका उपचार करके उसे पुनः स्वस्थ करते है।’

“हे आचार्यवर! हमारी यह परोपकार वृत्ति देखकर ‘देवराज इन्द्र” हमारी देवजाति होने पर भी हमारी ओर तिरस्कार भाव से देखते है। हमें आज तक हमें यज्ञभाग भी नहीं देते है। आपको तो ज्ञात होगा कि कुछ समय पूर्व हमने च्यवन ऋषि को वृद्ध में से युवान बनाया था। तब च्यवन ऋषिने कृतज्ञतापूर्वक हमको “सोमपीथी’ (सोमरस का पान करनेवाला) बनाया। तब देवराज इन्द्र को विवशहोकर उनका मान रखना पडा। हमने आज तक संयम रखा है। कभी भी लालच या अधीरता नहीं रखी है।’

अत्यंत विनय भाव से अपना परिचय देने के पश्चात्‌ दोनों अश्विनी कुमारोंने आचार्यजी से निवेदन किया कि – ‘हे आचार्यवर! इतना सब कुछ होने पर भी आत्मविद्या का ज्ञान न होने से हमें हमारा देवत्व अपूर्ण लगता है। ऐसा सुना है कि आप ‘मधुविद्या’ के आचार्य है। हम विनयी शिष्य बनकर आपकी शरण में आये है। हमें यह मधुविद्या का अध्यापन करवाने की कृपा करें।’

दध्यड्‌ ऋषि ने उनकी बातें ध्यान से सुनी और यह निश्रय हुआ कि आज तक मेरी इस “मधुविद्या’ को ग्रहण करनेवाला इससे सुपात्र ओर कोई नहीं मिला है सुपात्र शिष्य मिलने से वह प्रसन्न हुए परंतु अपने हाथ इन्द्र के कठोर वचन और पत्ली के प्रेम बंधन से बंधे हुए थे, यह सोचकर उन्होंने अपनी विवशता दोनों अश्विनी कुमारों के समक्ष रखी।

अब्विनी कुमारोंने कहा : ‘हे ऋषि! यह बात हम जानते है। एकबार तो यहाँ आने से पहले हम निकल कर फिर पलट के चले गये थे। हम यह भी जानते है कि आप अपने सुपात्र शिष्यों के प्रति इतना प्रेम रखते है कि उनके लिए जीवन की भी परवाह नहीं करेंगे। परंतु हम इस तरह गुरु के वध का मूल्य देकर हम विद्या प्राप्त करना नहीं चाहते है। परंतु इसका एक उपाय हमे मिला है कि आपके आशीर्वाद से हमें ‘संवर्ग विद्या” का ज्ञान है। हम आपका मस्तक उतार कर एक तरफ रखकर उसके स्थान पर अश्व का मस्तक लगा देंगे। आप हमें उस अश्व के मस्तक द्वारा *मधुविद्या’ का उपदेश देकर अध्यापन करवाना। यदि देवराज इन्‍्द्रने क्रोध मेंआकर यह मस्तक छेदन किया तो हम पुनः आपका मस्तक लगा देंगे।’

यदि कोई दूसरा गुरु होता तो अवश्य यही कह देता कि मुझे ऐसा शिष्य भक्त नहीं होना है कि जो एकबार अपना मस्तक छेदन कर दूसरी बार अश्व का मस्तक लगाकर आपको विद्या दे। मुझे इससे क्या लेना-देना ? इतना बडा जोखिम मैं क्यों उठाऊँ? कदाचित्‌ आप मेरा मस्तक पुनः ना लगा पायें तो ?

परंतु दध्यड ऋषि तो परोपकारी और शिष्य वत्सल गुरु थे। वह ‘मधुविद्या’ देने को तत्पर हो गये। आत्म कल्याणकारिणी ‘मधुविद्या’ का अशध्विनी कुमारों को अश्व के मुख से उपदेश देकर अध्यापन करवाया।

ऋग्वेद में यह ‘मधुविद्या’ का उपदेश प्रकरण है। जिसका सार ऐसा है कि – ‘स्थूल से सूक्ष्म ऐसे विश्व के पदार्थ परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव से एक दूसरे से संलग्न है। धर्म एवं सत्य भी विश्व में परस्पर उपकारक होने से एक दूसरे के लिए मधु है।

इस प्रकार अश्वमुखी दध्यडू ऋषि का “मधुविद्या” का उपदेश अध्यापन समाप्त होते ही देवराज इन्द्र का वज़ उपर से आया और दध्यडू ऋषि के कबंध से अश्व का मुख अलग हो गया। अश्विनी कुमारोंने पुनः शल्य चिकित्सा के कौशल्य का प्रयोग करके दध्यड्‌ ऋषि को पूर्ववत्‌ बना दिया। बाद में देवराज इन्द्रने भी अपने अपराध के लिए क्षमा याचना की।

दध्यडू ऋषिने उदार भाव से देवराज इन्द्र को क्षमा भी किया। इस प्रकार आचार्य दध्यड्‌ ऋषि के अपना आचार्यत्व, गुरुत्व, श्रेष्तच अपने परोपकार और औदार्य से सिद्ध करके दिखाया।

ऋग्वेद में यह कथा आती है। इसकी सूचक ऋचा इस प्रकार है।
तद्वा नरा सनये देसे उग्रभाविष्केणोमि तन्यतुर्न वृष्टिम्‌।
दध्यडः ह यन्मध्वाथर्षणो वामश्वस्य शीर्ष्णा प्र यदी मुवाचे।।१२।॥।

(ऋग्वेद २-२२६-१२)

अन्य स्थानों पर भी इस कथा का स्रोत प्राप्त होता है। जैसे कि –
ऋग्वेद : २-११६-१२, १-११७-२२, १०-४८-८
शतपथ ब्राह्मण : १४-४-५-१३
बृहदारण्यक उपनिषद : २५
बृहदेवता : ३-१८ से २४
श्रीमद्‌ भागवतम्‌ : ६-२० (अध्याय)

आचार्य के यह प्रमुख 5 गुणों के उपरांत – संतोष, त्याग, तप, शौच आदि गुण तो है ही। आचार्य अपने आचरण से सिखाता है इसलिए रट्टा मारना (रटण करना)

यह गुरुकुल में नहीं है। गुरुकुलम्‌ में पाठ होगा। कोई भी बात याद रखने की पद्धति जितनी कृत्रिम होगी, उतना याद कम ही रहेगा। बार बार मंत्र, श्लोक, कथायें कान में पडते रहते है, श्रवण करते रहते है। दिन रात स्वतः रटण होता रहता है। कामकाज करते समय भी वह रटण रहता है। इसलिए कोई भी पदार्थ को आत्मसात्‌ करना सरल हो जाता है। ‘गुरुकुल शिक्षा पद्धति” अपनी अनौपचारिकता एवं सरलता के कारण ही युगों तक विद्यमान रही और आज भी बीज रूप में तो विद्यमान है ही।

विषय

संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, व्याकरण और अन्य भाषा शास्त्र का ज्ञान
संचालन व्यवस्था, लेखांकन (एकाउन्टस) के प्रशिक्षण का ज्ञान
सात्विक अन्न, जल, दुग्ध, घृत, युक्त नैसर्गिक भोजन का ज्ञान
प्राचीन इतिहास एवं खगोल-भूगोल आदि विश्व दर्शन का ज्ञान
आयुर्वेद, आहार विज्ञान, घरेलु उपचार पद्धति का विशेष ज्ञान
संगीतकला, नाट्यकला, वक्‍्तृत्व कला के विकास का ज्ञान
चित्रकला, रंगोली, हस्तलेखन कला की कुशलता का ज्ञान
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक पोषण के उत्कृष्ट नियमन ज्ञान
पदार्थ विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान का सम्यग्‌ विश्लेषण
स्वदेशी खेल-कब्बड्डी, शतरंज आदि का प्रशिक्षण ज्ञान
उत्पादन, निर्माण और प्रचार-प्रसार के शिक्षण का ज्ञान
संस्कृति और राष्ट्र के प्रति निष्ठावान बनने का ज्ञान
आयुर्विज्ञान, सम्मत प्राकृतिक सह जीवन का ज्ञान
दुर्लभ वैदिक गणित का सूक्ष्म ज्ञान
कलाओं के प्रशिक्षण का ज्ञान
योग, शारीरिक विकास ज्ञान

गुरुकुल शिक्षा की २६ पद्धतियाँ

गुरुकुल शिक्षा पद्धति विश्व की सब से श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति है | गुरुकुल शिक्षा पद्धति की विशेषता यह है कि इसमें केवल विषयों का ही महत्त्व नही है, परंतु विषयों को सिखाने की विभिन्न पद्धतियों का भी उतना ही महत्त्व है |

उपनिषद्‌ आदि आर्ष ग्रंथों में पढ़ाने की विविध पद्धतियों का निरुपण किया गया है । उसकी व्याख्या संक्षेप में यहाँ बताई गई है ।

(१) संवाद पद्धति:

सब से प्रथम तथा उत्तम है, संवाद पद्धति । गुरु-शिष्य के बीच में, वक्ता- श्रोता के बीच में जो ज्ञानसाधक वार्तालाप होता है, उसे “संवाद” कहा जाता है |

संवाद में नई-नई जानकारी, तथा जानकारी में से ज्ञान और ज्ञान से बोध तक की यात्रा सहज और सरल पद्धति से हो सकती है |

अन्य पद्धतियों में उपदेशक बोलते हैं और श्रोता केवल सुनते हैं, परंतु संवाद पद्धति में दोनों बोलते हैं, परस्पर प्रश्नोत्तर होता है | संवाद पद्धति में दोनो पक्ष वक्ता- श्रोता की समान भूमिका (॥४०।५७॥०॥) होती है |

वेदों में तथा उपनिषदों में भी गुरु-शिष्य संवाद ही अधिकतर पाये जाते हैं । जैसे केन उपनिषद्‌ में इंद्र-उमा संवाद, कठ उपनिषद्‌ में यम-नचिकेता संवाद, छान्दोग्य उपनिषद्‌ में उद्दालक-श्रेतकेतु संवाद, बृहदारण्यक उपनिषद्‌ में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद, प्रश्नोपनिषद्‌ में – सुकेशादि शिष्य-महर्षि पिप्पलाद संवाद इत्यादि उपनिषदों मे शिक्षा के लिए संवाद पद्धति को ही महत्त्व दिया गया है ।

विश्व का सब से महत्त्वपूर्ण, तत्त्जज्ञान तथा अध्यात्म के शिखर स्वरुप, शिक्षा का मूल्यवान ग्रंथ भगवद्‌ गीता भी संवाद पद्धति से ग्रंथित हुआ है, इसलिए ही गीता के प्रत्येक अध्यायके अंत में श्री कृष्णार्जुन संवादे ऐसा लिखा गया है, श्री कृष्ण उपदेशे ऐसा नही लिखा ।

संवाद पद्धति में कोई भी प्रश्न, जिज्ञासा, संशय जो श्रोता के मन में आता है, वह प्रश्न शिष्य (श्रोता) खुले मन से पूछता है और गुरु (वक्ता) भी पूर्ण मन से, पूर्ण भाव से प्रत्युत्तर देते हुए शिष्य की जिज्ञासा को तृप्त करता है और शंका का समाधान करता है । इस कारण से ही ऐसे संवाद से तत्त्व का बोध होता जाता है |

संवाद पद्धति में वक्ता को या श्रोता को बोलने या सुनने से ऊब नहों आती है । शिक्षण का सब से बड़ा शत्रु या दूषण यह ऊब या मन उचाट होना ही है | संवाद पद्धति में रटा-रटाया नही बोला जाता है, इसलिए कम समय में अधिक से अधिक से अधिक जानकारी तथा ज्ञान का प्रदान हो सकता हैं

फिर भी संवाद पद्धति में पर्याप्त ममय की अपेक्षा रहती है । संवाद पद्धति समय निरपेक्ष होने से वक्ता-श्रोता दोनों को कोई भार, कोई जल्दबाजी या कोई तनाव नही रहता है । पूर्ण धैर्य एवं स्थिरता से दोनो में सहजता से वार्तालाप होता रहता है वक्ता के द्वारा सिखाये गये या श्रोता द्वारा सीखे गये विषय कब सीखे-सिखाये गये इसका पता भी नही चलता और अनायास ही शिक्षा प्राप्त हो जाती है |

शाला-महाशाला इत्यादि में एकपक्षीय भाषण के स्थान पर यदि संवाद पद्धति का प्रयोग हो तो विद्यार्थी एवं अध्यापक दोनो के लिए शिक्षा का आदान-प्रदान सुगम हो जाएगा । गुरुकुलम्‌ में अधिकांश इसी पद्धति से सभी विषयों को पढ़ाया-सिखाया जाता है।

(२) उपदेश पद्धति:

उपदेश पद्धति में कोई एक विद्वान वक्ता किसी एक विषय को निर्धारित करके, उस विषय पर निश्चित समय के लिए भाषण करे, उसे उपदेश कहा जाता है। उपदेश की भाषा प्रौढ़ होती है, तथा उसका मर्म भी गहन होता है । चुटकुले, कहानी आदि सुनाना उपदेश नहीं है । उपदेश विशेष शिष्य या वर्ग के लिए ही होता है |

उपदेश में आनेवाले पदार्थों का ज्ञान वक्ता को विशेषरुप से होता है, इसलिए श्रोता को भी उस पदार्थ का सामान्य ज्ञान होना अनिवार्य है । यह पद्धति को इसी कारण से सार्वजनिक नहीं बताया गया है । वह चुने हुए विशेष वर्ग के लिए है |

(३) दृष्टांत पद्धति:

दृष्ट॑त पद्धति द्वारा किसी भी विषयवस्तु को समझना / समझाना सरलतम हो जाता है । दृष्ट॑त पद्धति में जैसा प्रसंग हो, जैसी बात हो उस प्रकार का उदाहरण (दृष्टांत) दिया जाता है |

दृशंत देने से दृष्ठंतिक (मूल पदार्थ) समझाया जा सकता है । दृष्टांत प्राय: वस्तुओं का या द्रव्यों का दिया जाता है, क्योंकि वस्तु सर्वत्र होती है । परिचित वस्तुओं से अपरिचित पदार्थ या व्यक्ति का निर्देश करने के लिए दृष्टांत पद्धति का उपयोग किया जाता है, जैसे कि किसी व्यक्ति का जीवन शुद्ध एवं तेजस्वी हो तो उसे ‘सोने जैसा’ कहा जाता है । उपरांत सुवर्ण की परीक्षा जैसे घिसने पर, तपाने पर, छेदने पर तथा पीटने पर होती है, वैसे ही नर (मनुष्य) की परीक्षा उसके गुण, शील, विद्या तथा कर्म से की है । सोने के दृष्टंत द्वरा मनुष्यरुपी दृष्ंतिक को समझाने का प्रयास किया गया है |

(४) प्रत्यक्ष शिक्षा पद्धति :

प्रत्यक्ष शिक्षा पद्धति में शिक्षण क्रियाकलापों के द्वारा दिया जाता है | कुछ बातें सीखकर करनी होती है, तो कुछ बातें करके सीखनी होती हैं।कुछ प्रयोग भी कर ही सिखाने होते हैं | किसी भी विषय का प्रयोग इसी पद्धति के अंतर्गत आता है|

(५) परोक्ष शिक्षा पद्धति :

परोक्ष शिक्षा पद्धति में कुछ दिखाकर नहीं, परंतु अनुमान को दृढ़ करकेविचारशक्ति तथा कल्पनाशक्ति को विकसित करके सिखाया जाता है । इस पद्धति से छात्रों का अनुमान सामर्थ्य बढ़ता है तथा चिंतन कास्तर गहन होता है । न्याय, वैशेषिक जैसे दर्शनशास्त्र पढ़ने के लिए प्रभावी चिंतनशक्ति होना आवश्यक है |

(६) स्वैरकथा पद्धति :

स्वैरकथा पद्धति में जो विषय पढ़ाना होता है, उस विषयवस्तु पर कोई कहानी (कथा) कही जाती है । सिद्धांत को समझाने के लिए जैसे दृष्टंत बताये जाते है, उसी प्रकार किसी भी कठिन विषय को सरल बनाने के लिए स्वैरकथा (कहानी) बताई जाती हैं ।

इसलिए कहा गया है कि यास्तेषां स्वैरकथा शास्त्राणि भवंति इतरेषाम्‌ (आचार्य के द्वारा कही गई स्वैरकथायें (कथायें) भी अन्यो के लिए शास्त्र हो जाती है ।)

स्वैरकथा के माध्यम से जो शिक्षा दी जाती है, वह बहुत ही उतकृष्ट होती है । पंचतंत्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर आदि ग्रंथ स्वैरकथा पद्धति से शिक्षा दिनेवाले ग्रंथ है ।

(७) पाठनकलाविधि (पाठन द्वारा पठन पद्धति) :

विद्यार्थी पठन ([.8७॥98) करते-करते ही पाठन (980०779) भीकराये, उसे पाठनकलाविधि कहते है | पाठनकलाविधि के द्वारा पठनकला स्वत विकसित होती है | एकबार पूरा पढ़कर B.Ed/M.Ed करके बाद में पढ़ायेंगे ऐसा मानना उचित नही है |

जैसे कि कोई पहले पाँच वर्ष खा ले और बाद में पाँच वर्ष लगातार सोता रहे ऐसा योग्य नहीं है, तथा संभव भी नही है, उसी प्रकार पठन के साथ पाठन और पाठन के साथ पठन दोनों बातें गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था होती है, होनी चाहिए, जिससे विद्यार्थी उत्कृष्ट आचार्य, श्रेष्ठ वक्ता तथा उत्तम संचालक बन पाये और आचार्य सदैव जिज्ञासु, अभ्यासु तथा संशोधक बना रहे |

(८) चिंतनिका पद्धति :

पाठनकलाविधि जैसी ही पद्धति ‘चिंतनिका पद्धति” है । गुरुकुल शिक्षा में आचार्य (गुरु) जब कोई भी विषय सिखाते है और एक साथ सभी शिष्य सुनते है, सीखते है। उसके बाद सभी विद्यार्थी साथ में बैठकर उस विषय के ऊपर चर्चा करते है , एक दूसरे के साथ विभिन्न प्रमुख-गौण बिंदुओं पर चर्च-विचारणा करके अभ्यास का पुनरावर्तन करते है, उसे चिंतनिका पद्धति कहते हैं । यदी छात्रों (शिष्यों) की संख्या अधिक हो तो छोटे-छोटे समूह में विभाजित करके ऐसी चर्चा करनी चाहिए, जिससे सभी विद्यार्थी अपना-अपना चिंतन-विचार प्रस्तुत कर सके ।

विश्वविख्यात राजनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य ने इस पद्धति के विषय में कहा है कि पादमेकम्‌ आचार्यात्‌ धते, पादमेकम्‌ सहब्रह्मचारिभि: । अर्थात्‌ शिष्य जितनी शिक्षा आचार्य से प्राप्त करता है, उतनी ही शिक्षा, उतना ही ज्ञान वह अपने सहपाठीयों से चिंतनिका पद्धति से ग्रहण करता है |

(९) अनुभव कथन द्वारा शिक्षण :

आचार्य कभी-कभी अपने जीवन में हुए अच्छे-बुरे अनुभवों की बातें शिष्यगण से करते हैं, अपने अनुभवों की बातें साझा करके वह विद्यार्थियों का उत्साह बढ़ाते हैं | सावधानी, जागृति तथा दक्षता का सबक भी सिखाते हैं | यह भी शिक्षा की उत्तम पद्धति है |

(१०) लक्षणविज्ञान पद्धति :
किसी भी वस्तु का यथार्थ स्वरुप समझाने के लिए उसके लक्षणों को जानना-समझना आवश्यक होता है | लक्षणों के आधार पर वस्तु या व्यक्ति का यथार्थ मूल्यांकन करना, उसको अपने जीवन में उचित स्थान देना, यह भी शिक्षा है ।

इस पद्धति से अनेक पदार्थो का यथार्थ ज्ञान सरलता से हो सकता है | तथा जो ज्ञान हुआ है वह यथार्थ है, सत्य है इसकी जाँच भी इसी पद्धति के द्वारा हो सकती है | लक्षणविज्ञान पद्धति न्यायदर्शन तथा आयुर्वेद, ज्योतिष जैसे विषय पढ़ाने के लिए उपयुक्त पद्धति है

इस पद्धति के विषय में कहा गया है कि लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः । अर्थात किसी भी वस्तु की सिद्धि के लिए वस्तु के लक्षण और प्रमाण अनिवार्य है।

(११) क्रीड़ा (खेल) द्वारा शिक्षा पद्धति

इस शिक्षा पद्धति में किसी भी विषयवस्तु को क्रीड़ा यानि खेल के माध्यम से सिखाया जाता है। खेल में जो शिक्षण दिया जाता है वास्तव में वही सच्चा शिक्षण है। गया जाता है । खेल में जो शिक्षण दिया जाता है, वास्तव में वही सच्चा शिक्षण है।

क्रीड़ा शिक्षा पद्धति अर्थात खेल का शिक्षण नही, परंतु खेल के द्वारा शिक्षण देना | जीवन के उच्चत्तम मूल्यों को खेल के द्वारा सिखाना । जैसे कि भगवान श्री कृष्ण ने खेलते-खेलते ही गोकुल में क्रांति का वातावरण निर्माण किया ।हमारी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में तीन प्रकार से प्राथमिक शिक्षण देने की बात बताई गई है | कहानी, खेल और गाना यह शिशुशिक्षण की यह त्रिवेणी है ।

क्रीड़ा के द्वारा शिक्षण देने से विद्यार्थी एवं अध्यापक दोनों परस्पर से भावनात्मक ऐक्य से जुड़ते है ।

१२) गानद्वारा ज्ञान (गीत द्वारा शिक्षा) पद्धति :

गीत शिक्षा पद्धति में गान के द्वारा शिक्षण दिया जाता है | विविध प्रकार के गीत, भजन, आदि के द्वारा जीवन के उच्च नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का ज्ञान, बोध सरलता से मिलता है । हमारे जीवन की प्रत्येक घटनाओं के साथ एवं

हमारे देश के सभी पर्व-त्यौहारों के साथ भी गीत-संगीत अभिन्न रुप से जुड़ा हुआ है । बचपन में माँ की मधुर लोरी से आरम्भ हुई जीवनयात्रा मृत्यु के शांति गान- प्रार्थना गान तक चलती रहती है ।

मनुष्य के मस्तिष्क का अभ्यास करके स्मृतिशक्ति के विषय पर अनुसंधान करनेवाले भी यह बताते हैं कि श्रोता गान/गीत के शब्दों को शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं । गीत द्वारा मिला हुआ शिक्षण/ज्ञान लम्बे समय तक याद रहता है, इसलिए गुरुकुलम्‌ में बालकों को विषय के अनुरुप गान आदि सिखाये जाते है ।

जैसे कि वेद-उपनिषदों का मंत्र गान, श्रीमद्‌ भगवद्‌ गीता आदि संहिताग्रंथों के श्लोक, पाठ, योगसूत्र पाठ, गायत्री-अनुष्ठप आदि छंदो का ज्ञान, तुलसीदास, रैदास, सूरदास, मीराबाई, कबीर जैसे भक्त कवि द्वारा रचित पद-भजन, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचित जयद्रथ वध आदि महाकाव्य, आद्य कवि महर्षि वाल्मीकि से लेकर आधुनिक कवियों की उत्कृष्ट गेय रचनायें छात्रों को सिखाई जाती हैं | केवल दूषित तथा अर्थहीन फिल्‍मी गानों को छोड़कर सभी प्रकार के गीत-संगीत सिखाया जाता है।

समूह में गीत गाने से एकत्व की भावना बढ़ती है, परस्पर सौहार्द तथा सामंजस्य भी बढ़ता है |

(१३) कथाकथन शिक्षा पद्धति :

इस पद्धति में किसी भी एक कथा (कहानी) को बताकर/कहकर शिक्षा दी जाती है, इसलिए इसको कथाकथन पद्धति ऐसा कहा जाता है ।

स्वैरकथा और कथाकथन इन दोनो पद्धति में अंतर यह है के कथाकथन में कथा स्वयं ही बोधस्वरुप होती है | कोई भी बात समझाने के लिए नही, परंतु कथा को समझाने के लिए ही बातों का सहारा लिया जाता है, उसे स्वैरकथा कहते है ।

कथा को और भी अच्छी तरह से बताने के लिए उस में नाट्य का होना भी आवश्यक है । एकपात्रीय अभिनय, मूकनाटक
तथा नाटक यह सब शिक्षा पद्धतियाँ भी वस्तुत: कथाकथन का ही एक भाग है |

(१४) नैमित्तिक शिक्षा पद्धति :

निमित्त (कारणविशेष) पर प्रति सप्ताह, प्रतिमास या अवसर पर विशेष प्रकार से पढ़ाया जाता है, उसे नैमित्तिक शिक्षा पद्धति कहा जाता है |

(१५) तद्विद्संभाषा पद्धति :

जब निश्चित स्थान पर, निश्चित समय के लिए, निश्चित विषय पर तत्तत विषयों के निष्णात विद्वान अपने-अपने मत/मंतव्य, शस्त्राधार पर किये हुए प्रयोग तथा अनुसंधान आदि को अपने श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करते है, उसे तद्विद्संभाषा शिक्षा पद्धति कहा जाता है।

चरक संहिता में इस पद्धति की प्रशंसा करते हुए कहा है कि :- तद्विद्संभाषा बुद्धिवर्धनानाम्‌ अर्थात्‌ बुद्धिवर्धन के लिए तद्विद्संभाषा सर्वोत्तम उपाय है |

आज की परिभाषा में जिसको शिबिर, सेमिनार या कार्यशाला कहा जाता है, उसे ही तद्विद्संभाषा कहते है । तद्विद्संभाषा अर्थात्‌ किसी भी विषय को शास्त्राधार पर तोल-मोलकर, अधिकृत व्यक्ति द्वारा श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत करना ।

(१६) शात्रार्थ पद्धति :
यह पद्धति उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है । इस पद्धति में पूर्वपक्ष का खण्डन करके अपना पक्ष रखना होता है । शास्त्रो के आधार पर अपना मत/पक्ष स्थापित करना तथा उसके अनुरुप तर्क रखना तथा शास्त्रो के सही अर्थ का जिज्ञासुओं को प्रतिपक्षी को बोध कराना, इस पद्धति की विशेषता है ।

(१७) वाक्यार्थ पद्धति:
यह पद्धति दक्षिण भारत में बहुत प्रसिद्ध है । कोई भी एक विषय को लेकर जब एक पक्ष अपने विषय का मण्डन/स्थापन करता है, उसे वाक्यार्थ पद्धति इस पद्धति का मूल उद्देश्य भी जिज्ञासुओं को / प्रतिपक्षी को अपने पक्ष से अवगत कराके, उसका बोध कराना है|

(१८) उत्सव संदेश पद्धति :
उत्सवप्रिया: खलु मनुष्या: अर्थात्‌ मनुष्य उत्सवप्रिय होते है । महाकवि तूलसीदास के अनुसार हमारी संस्कृति में उत्सव के पीछे स्वास्थ्य का विज्ञान तथा भक्ति का उद्देस्य छिपा होता है, केवल मनोरंजन के लिए उत्त्सव नहीं होते हैं, परन्तु ज्ञानवर्धन, स्वास्थ्य संपादन तथा साधना द्वारा आत्मोत्कर्ष के लिए उत्सव मनाने चाहिए | उत्सव के दिनो में, उत्सव के संबंध में, उत्सव से जुड़े रहस्य एवं महत्त्व के बारे में जो शिक्षा दी जाती है, उसे उत्सव संदेश पद्धति कहते हैं । हमारे यहाँ विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न प्रकार के उत्सव आते हैं, उस में परोक्ष रुप से आयुर्वेद, खगोल इत्यादि विषय का प्रशिक्षण मिलता है ।

(१९) देशाटन (प्रवास-पर्यटन) पद्धति :

देशाटन अर्थात्‌ प्रवास-पर्यटन | केवल मनोरंजन के लिए नही, हवा बदलने के लिए नही, रोजगार के लिए नही, परंतु ज्ञान के आदान-प्रदान हेतु एक प्रदेश से / स्थान से दूसरे प्रदेश में / स्थान में जाना, उसे देशाटन पद्धति कहा जाता है । जिस प्रदेश का प्रवास हम करते हैं, उस प्रदेश से जुड़े हुए तथ्यों का / उसके इतिहास का साक्षात्कार होता है | जो ज्ञान हजारों पुस्तक पढ़ने से नहीं होता है, वह ज्ञान देशाटन से सहजता से प्राप्त होता है | देशाटन करने से ज्ञान के साथ विविध प्रकार के व्यवहारिक अनुभव भी प्राप्त होते है । सामूहिक देशाटन से परस्पर ऐक्य भी बढ़ता है । गुरुकुलम्‌ में बालकों को भूगोल / इतिहास / परंपरा इत्यादि का शिक्षण अनौपचारिक रुप से देने के लिए विविध स्थानो पर देशाटन (प्रवास) के लिए जाते हैं | सरलता से ऐसे (भूगोल / इतिहास आदि) विषय सिखाने के लिए यह पद्धति उत्कृष्ट है

(२०) प्रहेलिकाशिक्षा पद्धति :

प्रहेलिका अर्थात्‌ पहेली। इस शिक्षा पद्धति में पहेली के द्वारा बालकों की कल्पनाशक्ति, विचारशक्ति तथा निरीक्षणशक्ति बढ़ाने का प्रयास किया जाता है । पहेली को हल करने के प्रयत्न में बालक सोचते है, फिर अनुमान लगाते है और सही हल ढूँढते है, तो उनको आनंद आता है | इस पद्धति में संस्कृत भाषा में भी बहुत प्रहेलिका प्राप्त हैं, इससे संस्कृत जैसी भाषा का तथा शब्दकोश का ज्ञान भी मिलता है । आस-पास की वस्तुओं का अवलोकन करके कल्पनाशक्ति से बच्चे तक (पहेली) की रचना भी कर सकते है ।

२१) कूटप्रश्न पद्धति: पहेलियाँ

कूटप्रश्न अर्थात्‌ तार्किक प्रश्न, गाणितिक या वैज्ञानिक पहेलियाँ। सामान्य बुद्धि या तर्कशक्ति बढ़ाने के लिए यह पद्धति बहुत उपयोगी है। विक्रम-वैताल की, तेनाली रमन की कहानियों, पहेलियाँ, हाजिरजवाबी पाये जाते हैं । भोजप्रबंध नाम के ग्रन्थ में संस्कृत भाषा में कूटप्रश्न तथा पहेलियाँ मिलती हैं । वेदव्यासजी रचित महाभारत में भी साहित्यिक कूटप्रश्न है । कूटप्रश्न को समझने में भी बुद्धि का व्यायाम होता है, तथा उसका हल ढूँढने में तो और भी बौद्धिक व्यायाम हो जाता है। ऐसे कूटप्रश्न बुद्धि को तीक्ष्ण तथा सूक्ष्म करते हैं । बुद्धि के विकासके लिए इस पद्धति द्वारा शिक्षा देना चाहिए।

(२२) अष्टावधान या शतावधान पद्धति :

अवधान अर्थात्‌ ध्यान| एकसाथ आठ (भ्रष्ट), सौ (शत) या उससे भी अधिक विषयो पर पंच इन्द्रियों की शक्ति, मन की ग्रहणशक्ति तथा चित्त की धारणशक्ति द्वारा पूर्ण ध्यान देना, फिर उसका पुन: स्मरण ((२७८०४॥) करना, इसे अष्टावधान, शतावधान और अनेकावधान कहा जाता है। शिक्षा की इस पद्धति में एक साथ अनेक स्थान पर मन को सक्रिय रखने का, अनेक विषयोंका एक साथ ग्रहण (अवधारण) करने का अभ्यास करवाया जाता है। बहुत से विद्वान आज भी इस विद्या में पारंगत है । यह पद्धति विशेषरुप से कर्णाटक में प्रसिद्ध है।

(२३) काव्यपूर्ति तथा शीघ्रकाव्यरचना पद्धति :

काव्यपूर्ति (पादपूर्ति) भी शिक्षा की एक वैज्ञानिक तथा साहित्यिक पद्धति है, जिसमें अपूर्ण शलोक को ऐसे पूर्ण किया जाता है, जिससे सार्थक रचना (काव्य) हो सके । जिसमें छन्‍्दरचना का,शब्द- मात्रा का पूरा ध्यान रखना पड़ता है। महाकवि कालिदास ऐसी काब्यपूर्ति । पादपूर्ति करने के लिए प्रसिद्ध है ।

शीघ्रकाव्य पद्धति अर्थात्‌ कोई गद्यात्मक शुष्क जानकारी या कथा-वार्ता को पद्यात्मक आलंकारिक, साहित्यिक रूप में, छंदोबद्ध रचना में परिवर्तित करना। शीघ्रता से गद्यांश को या साम्प्रत स्थिति को काव्यरूप में ढालना इस पद्धति में छन्दो का, अलंकारो का, समास का तथा शब्दकोश का अच्छा ज्ञान होना आवश्यक होता है

(२४) प्रयोग पद्धति :

कोई भी वैज्ञानिक सिद्धान्त को या गाणितिक नियम को साधनों के द्वारा, खिलोने के द्वारा व्यावहारिक रूप में समझाना, इसे प्रयोग पद्धति कहते हैं। छोटे बच्चों के खिलोने भी ऐसे होने चाहिए जो उसे मनोरंजन देने के साथ साथ उसका ज्ञान भी बढ़ा सके। कौमारभृत्य तथा काश्यप संहिता में भी बालकों के खेलनेक्रीडनक (खिलौने) कैसे होने चाहिए, उसका विवरण दिया गया है।

आधुनिक समय में भी आई. आई. टी. से एंजिनियर हुए श्री अरविंद गुप्ता मैच स्टिक मॉडल नाम का वैज्ञानिक खिलौनो की रचना के संबंध में लिखा है। जिसका १३ भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।

(२५) सवसिक्षण या स्वानुभव कथन :

गुरुकुल शिक्षा पद्धति में स्वशिक्षण का प्राधान्य होता है। न्याय, आयुर्वेद, व्याकरण आदि विषय चिन्तन, मनन, विचार मंथन के होते हैं, उसके लिए स्वशिक्षण यानि एकाकी चिंतन का अती महत्व होता है। स्वशिक्षण या चिन्तन, मनन से प्राप्त अनुभव का कथन करके बाकी छात्रोंको भी अभ्यास एवं स्वशिक्षण के लिए प्रेरणा तथा प्रोत्साहन दिया जाता है । धीरे-धीरे आचार्य से प्राप्त हुए प्रत्येक पाठ के ऊपर चिंतन करने का स्वभाव प्रत्येक छात्र को हो जाता है | व्यर्थ वार्तालाप आदि में समय नष्ट न करते हुए स्वशिक्षण या चिन्तन में ही विद्यार्थी समय व्यतीत करे, यह गुरुकुल शिक्षा का प्राधमिक नियम है।

(२६ ) सामूहिक क्रिया-कलाप :

कोई भी क्रिया समूह में करने से एकता का भाव, बंधुत्व तथा सहकार की भावना बढ़ती है | कोई भी काम साथ में मिलकर करने से सरल हो जाता है । एक-दूसरे से काम करने का प्रशिक्षण अनायास ही हो जाती है

साथ में काम करने से कार्य की असफलता में हताशा (डिप्रेशन) तथा सफलता में अहंकार नही आता है | शारीरिक श्रम का काम हो या कला कारीगरी का, समूह में करने से उत्साह बढ़ता है, थकान भी कम लगती है, तथा काम भी जल्दी हो जाता है |

‘गुरुकुल’ में छात्र-छात्राओं से साप्ताहिक श्रमयज्ञ करवाया जाता है, उसमें आचार्य, अध्यापक भी सम्मिलित होते हैं | कठिन लगनेवाला श्रमकार्य भी सब मिलके, सानंद, सोत्साह कम समय में कर लेते हैं | कोई भी काम कम समय में भी सफाई से कैसे करना, इसकी शिक्षा बचपन से ही सामूहिक क्रिया-कलाप पद्धति से ही प्राप्त होती है | केवल किताबी कीड़ा न बनते हुए ‘गुरुकुलम्‌ के छात्र प्रकृति से, पंच तत्व से तथा आचार्य आदि के चरित्र द्वारा भी जीवंत शिक्षण प्राप्त करते है।

ये २६ पद्धतियों के अतिरिक्त अन्य उप-पद्धतियाँ भी शास्तरग्रन्थों में बताई गई हैं । संस्कृति आर्य गुरुकुलम्‌ में छात्रो को इन सभी पद्धतियों के द्वारा विविध विषय पढ़ाये जाते हैं ।

ऊँ सहना ववतु सहनौ भुनक्तु सः वीर्यं करवावहै। तेजस्विनां धीतमस्तु मा विद्विषावहै। ऊँ शांति: शांति: शांति:

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Gurukul Badheri

Gurukul Badheri, Muzaffarnagar

Gurukul Badheri is a residential cum gurukul situated in the village Badheri, Muzaffarnagar in the state of Uttar Pradesh. This Gurukul is run with a hybrid pattern i.e. our ancient Indian scriptures as well as current subjects like science, mathematics, English, etc. are taught so that the student can take admissions in anything in the future.

Gurukul, in addition to imparting education, also imparts Vedic values so that not only he is sound intellectual but also has a sound character.

Daily Routine

Students at Gurukul Badheri follow the following timetable from waking up at 4:00 am to bedtime at 9:00 pm.

WorkTime
Waking Up3:45 am
Mantra Path3:45am – 4:00am
Yogasanas4:00am – 6:00am
Yagna & Sandhya6:00am – 7:00am
Breakfast7:00am – 7:30am
Learning periods7:30am – 1:00pm
Lunch & Rest1:00pm – 3:00pm
Self-study time3:00pm – 5:00pm
Playing time5:00pm – 6:30pm
Havan & Sandhya6:30pm – 7:30pm
Dinner7:30pm – 8:00pm
Study time8:00pm – 9:00pm
Gurukul Badheri’s student timetable

Gurukul Badheri is run under the aegis of Yogesh Bhardwaj who is the main caretaker of this Gurukul. Currently, there are around 30 students who are learning under various acharyas.

The Vedic subjects taught in Gurukul Badheri are Vyakaran, Ashtadhyayi, Darshan Shastras Mahabhashya, etc. Even though the ancient gurukuls didn’t charge any fees. But we, at Gurukul Badheri, do charge a fee so that we can provide students with all the facilities. We want to create a model for gurukul education so that the Gurukul education system does seem a better alternative to the current education system.

Ancient India’s gurukul education system is the world’s oldest organized education system. Let’s join hands to create a functioning ecosystem that supports the further development of gurukuls. The glory of this ancient system can easily be understood from the fact that the British studied this system(Gurukul system) diligently and then based their own public education system on it.

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Gurukul Charthawal: Acharya Abhaydev ved gurukul

Acharya Abhay Dev Ved Gurukul a.k.a Gurukul Charthaval(Charthawal) is a Vedic Gurukul situated in Charthawal town of Muzaffarnagar, Uttar Pradesh.  This Gurukul is run by Arya Samaj and imparts education to the Brahmacharis who are looking to get traditional Indian Vedic education.

Gurukul Charthawal is run under the aegis of Yogesh Bhardwaj who is the main caretaker of this Gurukul. Currently, there are around 30 Brahmacharis(students) who are learning under various acharyas.

 The main subjects taught at Acharya  Abhay Dev Ved Gurukul are Yyakaran, Ashtadhyayi, Darshan Shastras Mahabhashya, etc. Any brahmachari or student who is willing to dedicate his life to the cause of Dharma can join the Gurukul and work for it. No fee is being charged from the brahmacharis.

Click on the link, if you are interested in learning about the ancient Indian Gurukul System of Education. The glory of this ancient system can easily be understood from the fact that the British studied this system(Gurukul system) diligently and then based their own public education system on it.

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Acharya Yogesh Bhardwaj

acharya yogesh bhardwaj

Acharya Yogesh Bhardwaj works for the betterment of the education system of India. Currently, 3 gurukuls run under the aegis of acharya Yogesh Bhardwaj. He has done his M.Sc. in Chemistry. After receiving their M.Sc. he has gone on to study the traditional Indian gurukul system. So he’s aware of the ins and outs of both systems of education viz Gurukul system & currently widespread schooling system.

What does he do?

Problems

We all are aware of the term Vishwaguru Bharat. Once upon a time, the world used to look up to India for guidance but our complacency has strayed us from the principles beyond recognition. If we compare ourselves to the Vishwaguru Bharat, we can see the glaring differences that stare at our faces. If we want to save the atman(soul) of Indian culture, we have no solution but to return to the path of rishis. We need to repurpose their principles for the 21st century.

Hindu society is facing an existential threat right now. If the current status quo is maintained then it is not long before Hinduism will be pushed to the brink of extinction. Hindu society is facing multitudes of problems with new ones arising by the day. There is no infrastructure in place that can produce solutions for the problems it is facing right now, let alone prepare for future engagements.

Solution

There is not all dark and gloomy. Some people work to create solutions. One of them is Acharya Yogesh Bhardwaj who thinks and strongly believes the solution lies in the reformation of the current education system. The current education system creates more problems than it solves. Such a system can at best be called a “broken system”. So we need to replace this “broken system” with the much better and time-tested Gurukul system of education.

But, and this is a big one, this is a herculean task. So we need your help.

How to work with him?

You can join our Newsletter to remain in touch where we share details of the work we are doing. You can also join us as a volunteer if you’d like to contribute your time and expertise to make this work sustainable.

Acharya Yogesh Bhardwaj YouTube Channel

You can listen to his thoughts on various YouTube channels like Vaidik Prachar, Aarsh Vidyakulam, and his own Yogesh Bhardwaj. Please subscribe and share your thoughts through comments.

Contact details?

You can WhatsApp him at his WhatsApp Number

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Importance of ancient Indian gurukul system & how did it look like?

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The literal meaning of ‘Gurukul’ is ‘the family of the Guru’ or ‘the lineage of the Guru’. But it has been used for centuries in the sense of educational institutions in India. The history of Gurukuls includes the history of protecting India’s education system and knowledge of science. In the development of Indian culture, the beliefs of four Purusharthas, four Varnas, and four Ashrams were not only interdependent for the accomplishment of their objectives, but Gurukul was also a great seeker in their success.

By yagyas and rituals, #Brahmins, #Kshatriyas, #Vaishyas, and #Shudras, children of all clans, varnas, and society, were taken to Gurukuls at the age of 6, 8, or 12 years (#Yagnopaveet, #Upanayana or Upavit) and Gurus. Sitting nearby, he used to receive education as a brahmachari. The Guru, fulfilling their mental and intellectual rites, would teach them all the scriptures and useful disciplines and in the end, after giving initiation, they would get married and sent them back to perform the various duties of the household.

Carrying out various responsibilities of the society, he used to take measures to attain the Trivarga. Gurukuls had an important contribution to the development of Indian civilization and culture. Gurukuls were often run by Brahmin householders both inside and outside the villages or cities. Grihastha scholars and sometimes even Vanprasthi would attract learners from far and wide and keep them in their families and with them for many years (ideal and legislation were up to twenty-five years) and educated them.

As a reward, the Brahmacari child either offered his services to the Guru and his family or would have paid only the fee at the time of completion. But gifts containing such financial rewards and other things were given as Dakshina only after initiation and before starting the Guru Vidya Daan, neither the visitor asked for anything from the students nor returned any student from his door without them. The doors of the Gurukuls were open to all the deserving students, rich and poor.

His inner life was simple, reverent, devotional, and renunciation. The disciple would learn from the Guru’s personality and conduct by being an interlocutor (by staying near). In the Gurukuls, all the scriptures and sciences known till then were taught and upon completion of the education, the Guru would test the disciple, give initiation, and after completing the Samavartan Sanskar, send it to his family. The disciples would give Dakshina to the guru according to their power while walking, but poor students were also freed from him.

Many such discussions are found in the Pali literature, from which it is known that kings like Prasenjit donated many villages to those Vedanishnat Brahmins, who ran Gurukul for the distribution of Vedic education. This tradition was often continued by most of the rulers and there are many inscriptions of the Gurukulas running in the villages donated to the Brahmins of South India and the teachings taught in them. The developed forms of Gurukuls were Takshashila, Nalanda, Vikramshila, and Valbhi University.

It is known from the travel details of the Jatakas, Huevenesang, and many other references that in those universities, students from far and wide used to come to study from the world-famous teachers there. #Varanasi was the main center of education since very ancient times and till recently there have been hundreds of Gurukuls, Pathshalas and Annakshetras kept running for their sustenance. This condition remained in Bengal and Nasik and many cities of South India.

In the era of the Indian national and cultural renaissance that started in the 19th century, many Gurukuls were established on the tradition of ancient Gurukulas and they played an important role in spreading the national spirit. Although the system of ancient Gurukuls cannot be re-established in modern conditions, yet their ideals can be adopted with necessary changes.

Gurukul used to be the main center of study and teaching in ancient Indian times, where celibate students or Satyanveshi Parivrajakas from far and wide used to go to complete their teachings. Those Gurukuls were of all kinds, small or big. But all those Gurukuls can neither be called universities in modern terminology nor were all their principal gurus called Vice-Chancellors.

According to the memoirs, ‘Muninam Dashasahasram Yonnadanadi Poshanat. Adhyaypati Viprashirsau Kulpati: Smrutah.’ The Brahmin sage who nourished ten thousand sages and taught them education through Annaadi was called the Vice-Chancellor. It is visible from the use of the word ‘Smriti’ quoted above that the tradition of taking this special meaning of the Vice-Chancellor was very old. The general meaning of the patriarch was the owner of a clan. The clan could be either a small and undivided family or a large and many small families of the same origin.

The antevasi student was a member of the great academic family of the Vice-Chancellor and the responsibility for his mental and intellectual development rested with the Vice-Chancellor; He was also concerned about the physical health and well-being of the students. Nowadays the term is used for the ‘Vice Chancellor’ of the university.

PS: You can read more in detail about the Gurukul system of education here

Acharya Abhaydev Veda Gurukul, Muzaffarnagar, U.P.

Acharya Yogesh Bhardwaj

09219487816